
कृष्ण जन्माष्टमी के बाद यह दूसरा मौका था जब मुझे नंदगांव का जिक्र सुनने को मिला। नंदगांव का इंदर साल के चार महीने अपने गांव में पेड़ों की ठंडी छांव में गाय, बैल और बकरियों के बीच गुजारता है और अप्रैल के आते-आते वह महानगर दिल्ली का रुख करता है। फिर गर्मी खत्म होने तक वह भाड़े के रिक्शे पर मटके की दुकान सजाकर दिल्ली की गली-गली में भटकता फिरता है।
दिल्ली की पसीनाछोड़ गर्मी से हम बेशक घर में दुबक कर रहने के लिए मजबूर हो जाए लेकिन इंदर के लिए तो घर से बाहर निकलने का यही माकूल होता है। वह कहता है, “अरे साब, गर्मी नहीं पड़ेगी तो धंधा कैसे चलेगा। अपना तो धंधा भी गर्मी बढ़ने के साथ ही बढ़ता है। जितनी ज्यादा गर्मी उतना ही चोखा धंधा” ।
इंदर के जीवन की इस कड़वी सच्चाई से शायद ही कोई वाकिफ हो कि जिन बाहों के सहारे वह मटके से लदे रिक्शे को एक गली से दूसरी गली में सरकाता है उन में से उसकी एक बाजू तो बिलकुल बेजान पड़ी है। उसकी यह बाजू तो बस सूखी हुई हड्डी की तरह है। इंदर कहता है, ”इस बाजू को तो मैं ठीक से हिली भी नहीं पाता हूं फिर इसके सहारे कोई चीज उठाना तो दूर की बात है”।
ज़रा सोचिए, एक बाजु के दम पर यह शख्स दक्षिण दिल्ली की तंग गलियों में गगरी से लदा रिक्शा कैसे धकेलता होगा। और अगर इस दौरान बीच में कोई गाड़ी वगैरह टपक जाए तो रिक्शे को किनारे लगाने की हड़बड़ाहट और ऊपर से उस गाड़ी वाले के झिड़क को यह ना जाने कैसे सहन करता होगा। गाड़ी वाला तो अनाप-शनाप कह कर चल निकलता होगा लेकिन उसकी इस असहाय पीड़ा को शायद ही कोई महसूस कर पाता होगा। और फिर इंदर शरीर की इस कमजोरी का दिल्ली के हर गली-मोहल्ले और सड़क –चौराहे पर ढिंडोरा पीटते हुए भी तो नहीं फिर सकता।आखिर वह भी तो एक आम इंसान है और दिल उसके पास भी है। अपनी कमजोरी का हर किसी के सामने जिक्र करने से उसे भी झुंझलाहट महसूस होती होगी। ये दिक्कतें पेश आने के बावजूद भी राहत भरी बात यह है की इंदर को अपने इस असहायपन के लिए सरकार का प्रमाण पत्र मिला है जिससे उसका बस और रेल से अना जाना मुफ्त हो जाता है। इंदर कहता है, “आने-जाने का कोई किराया-भाड़ा नहीं लगता है इसलिए महीने मे दो दफा घर जरूर जाता हूँ”।
जब मैंने इंदर से पूछा कि एसी और फ्रीज के जमाने में मटके की क्या खैर तो उसने बड़े रोचक ढंग से इसका जबाब दिया, “अंग्रेजी के आने से हमने देसी पीनी छोड़ नहीं दी है साब"। इदंर हर रोज 10-15 मटके बेचता है। मटके की कीमत उसके आकार पर निर्भर करती है। सबसे छोटा मटका 30 रूपये और बड़ा 60 रूपये तक बिकता है। कुल मिलीकर इंदर एक महीने में करीब 6-7 हजार रुपये कमा लेता है। अपनी आमदनी के बारे में इंदर कहता है, “कमाई तो उतनी ही होती है जितनी भागदौड़ करता हूं, लेकिन गुजारे लायक तो फिर भी बन ही जाता है”।
वह जब गांव में नहीं होता तो घर का सारा काम उसकी पत्नी और बच्चे संभाल लेते हैं। फिलहाल दिल्ली में गर्मी की जवानी के दो-तीन महीने अभी बाकी है और इस दौरान नंद के इस लाल को अपने मटके की ठंडक दिल्ली की हर गली-मोहल्ले तक पहुंचानी है।
दक्षिण दिल्ली की गली का एक दृश्य:

दक्षिण दिल्ली की तंग गली मे गगरी से लादे रिक्शे को किनारे लगता 'इन्दर '

बस एक-दो यहाँ बिक जाये तो फिर चलता बनूँ