Sunday, July 04, 2010

पानी पर एक प्रदर्शनी - इंडिया हैबिटेट सेंटर

नितिन टांडा निर्देशक(फोटोग्रॉफी और डॉक्यूमेंट्री)- इंडिया हैबिटेट सेंटर।लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

दी, नालों, झरनों और समुद्र की बलखाती लहरों से पैदा हर एक हलचल को कैमरे में कैद कर लोगों के दिमाग में एक नई हलचल पैदा करना नितिन टांडा का जुनून है। नितिन टांडा पैशे से एक फोटोग्रॉफी निर्माता और निर्देशक है। दुनिया और कैमरे के बीच के रिश्तों को समझना इन्होंने अपने स्कूल टाइम से ही शुरू कर दिया था। प्रबंधन की पढ़ाई के बाद नितिन टांडा ने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में प्रबंधक के तौर पर नौकरी की। नौकरी के दौरान भी टांडा साहब के हाथों में कैमरा बराबर बना रहा। जब नौकरी और कैमरे के बीच तारतम्य न बन पाया तो नौकरी का चोला उतार कर बस कैमरे का ही दामन थाम लिया। नितिन टांडा अभी तक 20 से अधिक डॉक्युमेंट्री फिल्में भी बना चुके हैं। मुंबई इंटनेशनल फिल्म फेस्टिवल और युनेस्को फेस्टिवल ऑफ डॉक्युमेंट्री फिल्म्स् में इनकी ये कृतियां प्रदर्शित हो चुकी हैं।


नितिन टांडा इन दिनों आईआईटी दिल्ली के छात्रों को एनिमेशन फिल्म निर्माण पढ़ा रहे हैं।

अपने इसी कैशल के बूते इन दिनों वह दुनिया को पृथ्वी में व्यापत पंचमहाभूतों की अहमीयत समझाते फिर रहे हैं। नितिन टांडा ने दो वर्षों तक सिर्फ और सिर्फ पानी पर आधारित फोटोग्रॉफी की है। इस दौरान इन्होंने हिमालय की शिखर से लेकर समंदर की गहराई तक, भारत के देहात की सुनसान तलैया से लेकर अमेरिका के आलीशान बीचों तक पानी के जितने रंगों को समेटा है, अदभुत है।

अपने इस अथक प्रयास के कुछ नमूने इन्होंने पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य पर इंडिया हैबीटेट सेंटर में भी प्रदर्शित किए। प्रदर्शनी के बाद मैंने भी पानी के कुछ फोटो खींचने के कोशिश की।


नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी

नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी
नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी


पानी पर मिज़ाजों के शहर की तस्वीरें...

लोधी गार्डन का तालाब


लोधी गार्डन में सूर्यास्त का दृश्य
लोधी गार्डन
लोधी गार्डन

नितिन टांडा की फोटो प्रदर्शनी की आनंद लेता दर्शक लोधी गार्डन
लोधी गार्डन
लोधी गार्डन लोधी गार्डन
लोधी गार्डन

Thursday, July 01, 2010

जमुना की बेचैन तलहटी में बसता एक अलग समाज

यमुना की तलहटी से शहर की ओर एक नज़र । लेख और सभी फोटो संदीप शर्मा

यमुना की गोदी में रहने वाले लोग हमेशा आकर्षित करते हैं। तेज बरसात और उफनता स्तर हो तो सब ध्वस्त, नहीं तो नदी की सूखी तलहटी ही रहने की जगह। यमुना बैंक मैट्रो स्टेशन के पास दूसरा बंदायू बसता है। दूसरा इसलिए कि यहां रहने वाला तकरीबन हर इंसान उत्तरप्रदेश के बंदायू से है। यहां लोग पट्टे पर खेती करते है। एक फसल के दौरान एक बीघा जमीन के लिए 1,000 से 1,200 रुपये तक चुकता करते हैं। साधन मालिक के और श्रम इन लोगों का। बोर का पानी पीना, उपले से खाना पकाना और भैंस के दूध की चाय पीना सब कुछ यहां गांव जैसा ही है।

सब्जियों की फसल पर फूल आने शुरू हो गए है। यहां के किसानों को आज कल कमर सीधी करने के लिए थोड़ा ज्यादा समय मिल जाता है। खटिया खेत के किसी भी कोने में बिछा दो नींद न आने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। मच्छरों की भनभनाहट और तर कर देने वाली उमस भी नींद के मजे को कम नहीं कर सकती।

जब मेरा जाना हुआ तो बंदायू का महेंद्र, तोरी के खेत में चारपाई पर लेटा हुआ था। वह अपने पूरे परिवार के साथ यमुना के किनारे सपाट मैदानों में खेती करता है। पांच बीघा जमीन पट्टे पर ली है। दो में तोरी, एक में भिंडी और दो में ही घीया उगाया है। तोरी की फसल तैयार है, इसलिए महेंद्र आज-कल लक्ष्मीनगर मंडी के चक्कर लगा रहा है। महेंद्र कहता है कि चौमासा निकलते निकलते जब खेती का काम बढ़ेगा तब तक तो आराम ही है।

बदायू का राम तीरथ भी यमुना किनारे खेती करता है। लेकिन थोड़े आराम के इस सीजन का वह आनंद नहीं ले पा रहा है। उसके सभी खेत मैट्रो लाइन से लगते है। नगरपालिका ने दिल्ली के सुंदर बनाने के लिए दो दिन पहले ही उसकी झोपड़ी पर जेसीबी मशीन चला दी। जेसीबी 2004 में भी चली थी। जब 40,000 झोपड़ियों को ढहा दिया गया। डेढ़ लाख गरीब बेघर हो गए। 30 सालों की रिहाइश को मिनटों में खाली करा दिया गया। अदालत के आदेश थे कि ये रिहाइश दिल्ली मास्टर प्लान 1962 के खिलाफ है। सरकार तो बस आदेश का पालन कर रही थी।

राम तीरथ आज कल बेघर है। इसी खातिर परेशान है। यमुना की सूखी तलहटी जैसी रहने की जगह मिल जाए, बस तलाश है।


राम तीरथ के पास सात बीघा जमीन पट्टे पर है। वे दो भाई है। लेकिन दोनों की बीवी एक है। उसकी मां कहती है, "घर में दो बहुएं होंगी तो रोज झगड़ा होगा"। खैर, दोनों भाईयों में बड़ा प्यार है और दोनों का एक बच्चा है। बच्चे की स्कूल जाने की उम्र हो चुकी है लेकिन वह अभी भी पूरा दिन दादी का पल्लू झटकने और अपनी भैंस की सवारी में बिता देता है। शिक्षा का अधिकार कानून बन चुका है। लेकिन ऐसे कानून गरीबों को कम ही फायदा करते हैं।

राम तीरथ कहता है, "सीजन अच्छा निकला तो स्कूल भेजने की सोचूंगा। इधर स्कूल है नहीं और शहर में रहने के लिए पैसे की जरूरत होती है"।
जब मैं यमुना नदी की ओर जा रहा था तभी राम तीरथ मुझे बीच रास्ते में मिला था। राम तीरथ उस समय यमुना में स्नान लौट रहा था।

जिन लोगों के पास खेती के लिए कम जमीन है, वे पैसा बनाने के वैकल्पिक रास्ते ढूंढते है। गांजा मलना इनमें से ही एक है। हालांकि यह गैरकानूनी है, लेकिन जब खरीदने वाले वर्दी वाले ही हो तो।

जब यमुना के किनारे पुल के नीचे पहुंचा तो नजारा ही कुछ और था। पहले पतले से पट्टे पर रस्सी बांध कर जोर से फैंका। फिर यमुना के तल में ठीक से समा जाने पर सलीके से अपनी ओर खींचा। मैंने सोचा कि मछली को पकड़ने की कोशिश हो रही है। लेकिन इतने गंदले पानी में मछली कैसे हो सकती है। इसके बाद उस पट्टे को हाथ पर धर कर इस पर से कुछ चीजें निकाली और फट्टे को फिर से नदी में फैंक दिया।

आखिर ये लोग कर क्या रहे हैं कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा था। रेलवे ट्रेक के पिलर के सहारे सुस्ताते एक आदमी से पूछा। मालूम हुआ कि पेट को पालने का माजरा हो रहा था। चुंबक के फट्टे के जरीए यमुना के तल से सिक्के निकालने की जुगत हो रही है। लोग पूजा सामग्री जो डाल जाते हैं, वो भी थोक के भाव में। दिन भर में 50-60 रुपये तो बन ही जाते है।

वातानुकूलित मैट्रो में बैठकर जब यमुना पर बने पुल से गुजरना होता है, तो न जाने क्यों कल्पना शक्ति पर ताले टंगे होते हैं। पुल के नीचे रोजी रोटी के लिए ऐसा संघर्ष भी हो रहा होगा कभी सोचा नहीं था।

जाने क्यों ऐसा लगता है कि यमुना किनारे और यमुना की सूखी गोदी में एक अलग दिल्ली बसती है। मैट्रो की चुंधियाती जिंदगी यहां आते आते फक्क सफेद पड़ जाती है। एसी और कूलर में बैठ कर जब दिल्ली शहर में रिकॉर्ड तोड़ तापमान की खबरें सुनी जा रही होती है, तो इस इलाके में लोग खेतों में पसीना बहा रहे होते है। इन लोगों को न तो बिजली कटौती सताती हैं और न ही पानी की बाधित सप्लाई। जो यमुना कईयों के लिए बदबूदार नाला है, वही यमुना इन लोगों के लिए आज भी नदी ही है। मां कैसी भी हो औलाद को तो दुनिया में सबसे सुंदर ही लगती है।

यमुना करीब 1,370 किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। मगर इसके सफर में दिल्ली के 22 किलोमीटर पसीना छुड़ा देते हैं। विश्वास करने वालों पर विश्वास करें तो इस 22 किलोमीटर के सफर में यमुना में लगभग 329.6 करोड़ टन कचरा प्रति दिन के हिसाब से गिरता है। यमुना के 5000 हैक्टेयर के इस मैदान में अब भी लगभग तीन लाख लोग रहते है। लेकिन प्रदूषण के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं। नदी को प्रदूषित करने में कल-कारखानों, उधोगों की बड़ी भूमिका है। मगर, यमुना के रखरखाव के नाम पर डंडा इन मुफलिसों पर ही चलता है। राष्ट्रमंडल खेल गांव, अक्षरधाम, मैट्रो मुख्यालय और दिल्ली सचिवालय भी तो यमुना के इसी मैदान में खड़े हैं। एक समय इस मैदानी इलाके में किसी भी तरह की निर्माण प्रतिबंधित था। लेकिन सरकार ने अपने लिए कानून बदलने में देर नहीं लगाई।

यमुना की बदहाली के कारखाने .......

रेल पुल के नीचे सिक्कों की तलाश


कड़कती धूप में जमुना के किनारे - राम तीरथ
यमुना की गोद में क्षितिज तक फैली हरियाली

उपलों से जलता है काकी के घर का चूल्हा

बात जब बस सिर ढकने की हो

अरबी की फसल
भिंडी की लहलहाती फसल

"फसल की खैरियत अपनी खैरियत" राम तीरथ


बेल पर लटकती तोरी
दोपहर के दो पल ..... महेंद्र और रामतीरथ
कहते हैं कि इन पौधों से डीजल बनता है

शीशम का जंगल

गांजा खुद ही उग आता है
जेसीबी मशीन का घाव

Friday, June 25, 2010

दिल्ली विश्वविधालय - रामजस कॉलेज में आनंद

दिल्ली विश्वविधालय से दाखिला लेने के बाद वापस आता आनंद । लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

नब्बे फीसदी अंक बटोरने वाले को जब गमगीन देखता हूं तो गांव के दिन याद आते हैं। बारहवीं में पचासा मारने पर भी पूरे बेड़े में यानी मेरे पूरे मोहल्ले में लड्डू बांटे थे। वह पूरी रात तो बस जश्न फूंकने में निकल गईं थी। अब मैं गांव में नहीं हूं। दिल्ली में हूं। इस जैसे महानगर में पढ़ने-पढ़ाने में कट ऑफ सूची की परंपरा है। अच्छे अंक तो थोड़ा अच्छा कॉलेज। बहुत ही बढ़िया नंबर तो थोड़ा और अच्छा कॉलेज। बस इतना ही। कट ऑफ की इसी परंपरा को और जानने के लिए दिल्ली विश्वविधालय यानी डीयू जाना हुआ।

मिरांडा, हिंदू और श्रीराम की ऐतिहासिक गलियों में कट ऑफ के लिए दूर धूल उड़ती देखी। इस पर एक अलग कहानी लिखूंगा। फिलहाल, वापसी में विश्वविधालय मैट्रो स्टेशन पर सुस्ता रहा था कि नज़र एक व्यक्तित्व पर जा जमी। वामन कद, पीठ पर टंगा स्लेटी रंग का बैग, औरों से कदम मिलाता, मगर साथ ही अपनी राह बनाने का संघर्ष करता। ये सब आकर्षित करने वाला था। लाजवाब। सुस्तीमय तंद्रा टूटी तो इस व्यक्तित्व की कट ऑफ हिस्ट्री जानने के लिए उसका पीछा करना शुरू किया। काफी वक्त लग रहा था, मगर काफी कुछ जान भी रहा था।

हमारे इस व्यक्तित्व का नाम आनंद शर्मा है। फरीदाबाद का रहने वाला है। 86 फीसदी अंकों के साथ बारहवीं की है। श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में दखिला नहीं मिला। रामजस से ही संतोष करना पड़ा। दो आंसू बहाने के लिए साथ में न मम्मी, न पापा और न ही मित्र। फॉर्म भरने से लेकर फीस जमा कराने तक, सारा काम खुद ही सटकाना पड़ा। औरों के मददगार साथ थे, लेकिन आनंद की कहानी उनसे हट कर है।

एक दिन जब आनंद की बुआ घर आईं तो उसके पिता से एक सवाल कर बैठी, "आनंद के साथ अब भी जाना पड़ता है या फिर अब यह अकेला बाहर चला जाता है"?

गलती उम्र की थी। आनंद कद से बेशक बच्चा नजर आता था लेकिन उम्र ऐसी बातों को समझने की हो चली थी । इसीलिए बुआ के इस सवाल से झेंप सा गया। आनंद कहता है, "उस दिन से ठान ली कि अब घर से बाहर अकेले ही निकलूंगा। हिम्मत बांधना शुरु की तो धीरे-धीरे डर खत्म होता गया। "

एक तो दिल्ली की गर्मी, दूसरा दाखिले के लिए चक्कर पर चक्कर, ऐसे में पसीने से तर-बतर होना लाज़मी है। आनंद के लिए मशक्कत थोड़ी और भी ज्यादा। औरों के दो कदम और उसके.... चार कदम । फरीदाबाद से कश्मीरी गेट वॉया बस, वहां से विश्वविधालय मेट्रो, विश्वविधालय मेट्रो स्टेशन से कॉलेज कैंपस ... बाख़ुदा पैदल। आनंद कहता है कि बस के पायदान पर बगैर सहारे चढ़ना मुश्किल होता है। मैट्रो में बाकी तो सब ठीक है, बस कूपन रीचार्ज में थोड़ा झंझट रहता है। मैट्रो की गरारी दार सीढ़ियों पर आनंद एक बार धक्का खा गया था। बस उस दिन के बाद फिर सवार होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

खैर, फरीदाबाद से विश्वविधालय तक का रास्ता नापे आनंद को सिर्फ तीन दिन हुए हैं। हॉस्टल न मिला तो यह उसके लिए रोज़ का संघर्ष बन जाएगा।

डीयू में दाखिले का दौर जोरों पर है। दाखिला पाने की होड़ में आनंद भी शामिल है। पहली कट ऑफ लिस्ट जारी हो चुकी है। उसमें उसका भी नाम था। नामी-गिरामी कॉलेजों में सामान्य वर्ग की कट ऑफ 90 प्रतिशत के ऊपर ही अटकी है। कक्षाओं की शुरुआत 15 जुलाई से होनी है। फैशन भी कैंपस का एक अहम हिस्सा है। आनंद कैंपस का हिस्सा जरूर है, लेकिन फैशन का शायद ही। राहगीरों की नजरें उसकी कद काठी से नहीं हटती। इनकी टकटकी और इक्के-दुक्के की ओए-ओए अखरती जरुर है, लेकिन अब उन सब चीजों की उसे आदत हो गई है।

आनंद की चाह आज कल उसे काफी बेचैन करती है। चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने के लिए बारहवीं के बाद दो साल का ड्रॉप ले लिया था। लक्ष्मीनगर में कुछ समय सीए की कोचिंग भी ली लेकिन इसके इम्तिहान में पार नहीं हो सका। वह कहता है, "आज कल मुझे 'हम दिल दे चुके सनम फिल्म का गाना', तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलती रही, मुझको सज़ा दी प्यार की , ऐसा क्या गुनाह किया जो लुट गए और 'ओम शांति ओम' फिल्म का गाना छन से जो टूटे कोई सपना.... सुनने अच्छे लगते है।

आनंद सपना देखने से अब कतराता है। रामजस कॉलेज में दाखिला मिल चुका है लेकिन चेहरे पर से खुशी के भाव नदारद है। महानगर की तनावपूर्ण जीवन शैली से शायद उसका यह पहला ही वास्ता है।

चुंधियाती धूप में माथे की सलवटों से पसीना पोछते हुए आनंद कहता है,"अब तो घर पर ठहरने का मन भी नहीं होता है। घर पर आने वाले लोग जब सीए का परिणाम पूछते हैं तो अखरता है। बस घर से बाहर रहने के बहाने ढूंढता हूं"। आनंद विश्वविधालय मैट्रो स्टेशन के बाहर तीन घंटे बैठा रहा। घर जाने के लिए अभी भी काफी समय था इसलिए केंद्रीय सचिवालय तक मुझे छोड़ने चल दिया।

थोड़ी पीड़ा के साथ, दबी आवाज में वह मुझसे कुछ कह रहा था। मगर, मेरा ध्यान कहीं और था। आंनद के बिलकुल पीछे बैठी दो लड़कियां इशारों में सारी बातें कर रही थीं। हम भारत के लोग भी न जाने कैसे हैं, जब भी कुछ सोचना हो, या मन में चित्रित करना हो तो फिल्मों के पोस्टर अंदरुनी आंखों में स्लाइडशो की तरह उतरने लगते हैं। इस पल ब्लैक फिल्म का स्लाइडशो चलने लगा। ब्लैक से रानी मुखर्जी का किरदार उभरा। इन दो सौम्य लड़कियों में भी बोल-सुन पाने की शक्ति नहीं थी। दोनों ही आनंद की तरह भीड़ से अलग मैट्रो स्टेशन के बाहर एंकात में एक ओर बैठ गईं। समझदारों की नजरों से बचने के लिए। टकटकी से बचने के लिए नई जगह तलाशनी पड़ती है।

मन में यही सब कुछ चल रहा था कि आनंद अपने शब्दों को दोहराने लगा, "घर में रहते हुए दो बार तो इतना परेशान हो गया था कि आत्महत्या कर बैठता। जान दे बैठता। खुद को समझाना बड़ा मुश्किल रहा। "

स्टेशन के बाहर जब मैं पेड़ की छाव में सुस्ता रहा था तभी मेरी नज़र पहली दफा आनंद पर पड़ी थी। वह घर जा रहा था। मैंने उसे गूढ़ पाया। मन न माना तो उसके पीछे चल दिया। करीब कैसे जाऊं और बात कैसे शुरू करूं इसी दुविधा में था। दरअसल ऐसे मौकों पर एक विशेष किस्म की संजीदगी की जरूरत होती है। संवेदनशीलता की दरकार होती है।

स्टेशन के बाहर लोगों के हुजूम से बचता वह स्टेशन के पीछे यहीं आ बैठा। उसके नजदीक जाने और बात करने के लिए मेरे मन की हां-ना लगभग दो घंटों तक चली। उसकी झिझक तोड़ने में 10-15 मिनट लगे। कुछ बातों के बाद आनंद ने कहा, "आपने पहले नहीं सोचा होगा कि मैं इतनी बातें करता होउंगा"। मेरे मीडिया से जुड़े होने का जब उसे एहसास हुआ तो बोला, "पहले पता होता शायद आपसे बात ही नहीं करता। " अगर मिजाज़ों के शहर को छोड़ दें, तो आनंद को मीडिया से जुड़े लोग पसंद नहीं।

इस विशेष चेहरे से जान-पहचान की मेरी कोशिश कामयाब ही रही। दोनों में दोस्ती हो गई। वह मुझे छोड़ने केंद्रीय सचिवालय मैट्रो स्टेशन तक आया। संभवतः उससे मिलने फिर डीयू जाऊंगा। साक्षात्कार हो गया, अगली बार सिर्फ हालचाल जानने।

विश्वविधालय मैट्रो स्टेशन के पीछे का एकांत

करियर...... ?

सामने पूरी दुनिया पड़ी है
मेट्रो के सफ़र से पहले हाथ मुंह धोया, धूल भरी आंधी जो चली थी

घर का पानी, तपता सूरज
एमिटी के विज्ञापन से होकर जाती राह

एक सफ़र और ...

समाज कैसा है, कैसा हो ..?

एक बार के लिये अलविदा ...

Thursday, June 17, 2010

एक तो मुफ़लिसी मार गई और दूसरे राष्ट्रमंडल खेल

नसीब में लिखा था सड़क का किनारा वो भी अब छूटा। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

पहले इन मजदूर परिवारों ने एमसीडी से सारा सामान ठिकानें पर लगाने के लिए चार दिन की मोहलत मांगी । नहीं मिली। फिर इन्होंने दोपहरी खाने के लिए बस बीस मिनट का समय मांगा। एमसीडी के पास वह भी नहीं था। एमसीडी कर्मचारियों ने पुलिस के घेरे में जेसीबी मशीन की ब्लेड से 15 साल पहले बनी इन झोपड़ियों को बस 15 मिनट के अंदर धूल में तब्दील कर दिया।
बेरुखी की हद तो ये कर्मचारी पहले ही पार कर चुके थे। बगल वाले पार्क में पीने के पानी की सप्लाई एक सप्ताह पहले सिर्फ इसलिए बंद कर दी गई थी ताकि ये गरीब अपना बोरिया-बिस्तर समेटने को मजबूर हो जाते। जिस गंदे पानी से पार्क की सिंचाई की जाती है मजबूरन उस पानी का इस्तेमाल इन्हें खाने बनाने से लेकर पीने तक करना पड़ा।

यह घटना मयूर विहार फेज-2 की है। लेकिन दिल्ली के सौन्दर्यकरण अभियान में पिसते गरीबों की आह तो सड़क के किनारे किनारे पर सुनी जा सकती है।

इन मजदूर परिवारों का पक्ष लेकर मैं अतिक्रमण की वकालत नहीं कर रहा हूं। मैं तो मुफलिसों के साथ बरती जाने वाली ज्यादतियों का एक अंश मात्र पेश करने की कोशिश कर रहा हूं।

राष्ट्रमंडल खेलों के लिए सजती-धजती दिल्ली का विरोध तो ये गरीब परिवार भी नहीं कर रहे हैं। रिक्शा चालक नरेश दिवाकर अलीगड़ का रहने वाला है। 15 साल पहले उसने अपने परिवार के साथ यहां डेरा जमाया था। आज उसकी आंखों के सामने यह डेरा उजड़ गया। जब बरदाश्त नहीं हुआ तो इन आंखों को देसी पउवे में डुबो दिया फिर दूर सड़क के किनारे में बैठ कर गालियां फड़फ़ड़ाता रहा। "*****मां*****भे*******गांव में होते तो एक एक पर तमंचा चढ़ा देते....। अरे झोपड़ियां तो एक दिन गिरनी थी । ..... सालों....ने खाना कत नहीं खाने दिया"।

रामअवतार सिंह फरुखाबाद का रहने वाला है। वह लोक निर्माण विभाग के साथ मजदूरी करता है। यहां सात मजदूर परिवारों के बीच उसका भी एक परिवार है। जब एमसीडी वाले पहुंचे थे तो रामअवतार की बीवी उसे और सात साल के बेटे प्रिंस को खाना परोस रही थी। कतार में उनका घर अंतिम था इसलिए जैसे-तैसे खाना निगलने का समय उनके परिवार को मिल गया। बस्ती के बगल में पुलिस चौकी है। रामअवतार कहता है कि यहां के वर्दी वालों के साथ उसकी अच्छी जमती थी। लेकिन इन वर्दी वालों की घेरेबंदी में जब उसके घर पर जेसीबी चली तो वह तो बस ताकते रह गया। रिक्शे पर सामान लादते हुए थोड़ा रुक कर रामअवतार कहता है, "वर्दी वाले किसी के सगे नहीं होते। महीने में दो दो बार मटन चिकन खिलाता था। दोपहर के समय चौकी के बाहर सफेदे की छांव में ताश पीटना तो हमारा रोज का काम था। गरीबों का कोई दोस्त नहीं हो सकता"। रामअवतार यमुना किनारे डेरा डालने की सोच रहा है। डेरे के लिए जगह पाने का वहां एक अलग संघर्ष है।

बदायूं की आशा को बस्ती के लोग झांसी की रानी कहा करते हैं। मिजाज़ से तेज तर्रार जो है। एक तो आशा का पति घर पर नहीं था, दूसरा जेसीबी की ब्लेड ने एक ओर से झोपड़ियों को कतरना शुरू कर दिया था। संभालने को तीन तीन बच्चे भी थे। आशा करती भी तो क्या? और जाती भी तो कहाँ साड़ी कसी और कर दिया शुरू सामान को किनारे लगाना। उसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी मालूम है और शीला दीक्षित का भी। थोड़ी सी देर के लिए जब मैंने बात करने के लिए रोका तो वह इन्हीं पर अपना गुस्सा उतार रही थी।

जेसीबी अब हट चुकी है। वर्दी वाले अपनी फटफटी में निकल चुके है। आशियानें उजाड़ है। रात कहां कटेगी यह ना आशा जानती है और न ही रामअवतार। पहले सड़क पर तो थे अब तो कहीं के नहीं रहे। कल से पेट के लिए भी संघर्ष करना है और सिर छिपाने के लिए भी। राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अभी तीन महीने बाकी है। तब तक सड़क का किनारा तो आशियाना नहीं बन सकता। गांव से निकल कर सालों गुजर गए हैं। ऐसे में विकल्प गांव वापसी का भी धुंधला पड़ गया है।

जेसीबी लगने से ठीक पहले

बेघर और बेसहारा, छूट गया अब सड़क का वो किनारा

लाठी बल और पुलिस बल दोनों

जेसीबी दृश्य -1
जेसीबी दृश्य-2

जेसीबी दृश्य-३

रामावतार अपने उजड़ते घर को ताकता हुआ

बस्ती की रानी झांसी 'आशा '

तेज तर्रार, गर्म मिजाज पर बेबस
"मुझे भी आती है राजनीति" आशा
मलबे में अटे सामान को निकलती एक अकेली जान

आखिर में ........