Tuesday, July 13, 2010

नेहरू प्लेस - डीडीए का छापा और हॉकरों की गिड़गिड़ाहट

डीडीए की निगरानी और सामान समेटते हॉकर। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

एक और छापा पड़ते देख रहा था। डीडीए के अधिकारी और पुलिसवाले घूम रहे थे और वहां दुकान लगाकर बैठे लोगों के दिल तेज-तेज धड़क रहे थे। बहुतों की दुकान तय आकार से बाहर जा रही थी। आज इन्हें बिखेरा जाना तय था। किसी की रोजी उजड़ते देखने के पैशे में न जाने क्या रखा है। आखों से आंसुओं को बहते, हाथों को रहम के लिए जुड़ते और गिड़गिड़ाते दुकानदारों को देखना विचलित कर देने वाला रहा। एक बार फिर। नेहरू प्लेस के इतिहास पर बात फिर कभी होगी। अभी बात इस घटना की। कपड़ों की दुकानें, जूतों की दुकानें, सीडी की दुकानें, हार्डवेयर की दुकानें, उपकरण रिपेयर करने की दुकानें और छोटे-भटूरे की दुकान भी प्रभावित हुईं।

नेहरू प्लेस में हॉकरों को दुकान लगाने के लिए या तो कोर्ट के स्टे ऑर्डर होना जरूरी है या फिर मानुषी संगठन द्वारा दिया गया प्रमाण पत्र। डीडीए ने नेहरु प्लेस मार्केट की शोभा बढ़ाने के लिए इन हॉकरों को हटाने का निर्णय लिया था। लेकिन साथ ही वादा भी किया था कि हॉकरों को वैकल्पिक जगह मुहैया करा दी जाएगी। आज से दो साल पहले अप्रैल 2008 में हॉकरों को हटा दिया। ना कोई नोटिस दिया ना हा कोई वैकल्पिक जगह। अस्सी के दशक से यहां दुकानदारी कर रहे हॉकरों के लिए यह बड़ा धक्का था। ऐसी स्थिति में गैरसरकारी संगठन मानुषी आगे आया। सभी हॉकरों ने मानुषी के बैनर तले अदालत का रुख किया।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले का संज्ञान लिया और डीडीए के नोटिस पर स्टे ऑर्डर दे दिया। साथ ही अदालत नें मार्किट की व्यस्तता को देखते हुए दुकान का दायरा भी निश्चित कर दिया। 4 बाई 6 में दुकानें फैलाने का सख्त आदेश दिया।

लेकिन, सभी हॉकरों का मानना है कि दुकान का यह साइज बहुत कम है। इस दायरे में दुकान लगाना और काम करना मुश्किल है। यही कारण है कि सभी हॉकर अदालत के इस आदेश को परे रख कर दुकान का आकार 14 से 16 फुट तक बढ़ा देते है। कारणवश मार्किट कईं बार घिच-पिच हो जाती है। कुछ हॉकर ऐसे हैं जिनके पास न तो अदालत के स्टे ऑर्डर है और न ही मानुषी संगठन का पहचान पत्र। इनकी संख्या तीन सौ से भी अधिक है।

जब दुकानों का आकार बढ़ जाता है और हॉकरों की संख्या बढ़ जाती है तो डीडीए को दखल
देनी पड़ती है। पुलिस और डीडीए कर्मचारी जत्थे में निकलते हैं और मार्किट का मुआयना करते हैं। जिसकी दुकान 4बाई6 से ज्यादा में फैली होता है उसके फट्टे जब्त कर लिए जाते है। अनधिकृत दुकानों को हटाया जाता है। छापे के समय सॉफ्टवेयर बेचने वाले लड़के और कार्टरेज रीफिल करने वाले दुकानदार कुछ देर के लिए छिप जाते है।

बस कहना यही है कि एशिया की सबसे बड़ी इस आईटी मार्किट का प्रबंध कैसे हो? मार्किट की शोभा भी एक मुद्दा है और यहां रोजी कमाने वाले हॉकर भी। हॉकरों को यहां से पूर्णरूप से हटा कर उन्हें जंगल का रास्ता दिखाना उचित नहीं। समाधान कुछ ऐसा हो ताकि रोजी भी बचे और मार्किट व्यवस्थित भी हो।

डीडीए द्वारा तैयार नक्शे पर नजर डालते डीडीए अधिकारी और हॉकर
चश्मे की दुकान पर डीडीए....
अपने कपड़े की दुकान को 4बाई6 का आकार देता विक्रेता..
'किताब भी समेटो और न्यूजपेपर भी'
ना कोर्ट स्टेऑर्डर था और ना मानुषी संगठन का पहचान पत्र इसलिए समेटनी पड़ी दुकान
मानुषी संगठन द्वारा जारी पहचान पत्र का निरीक्षण करता डीडीए एधिकारी
नेहरु प्लेस मार्केट में पुलिस की गश्त

Thursday, July 08, 2010

यमुना पार - 'टिंग्या' गोविंद और उसकी भैंस

गोविंद अपनी भैंस के साथ खेलता हुआ - यमुना पार। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

गोविंद देश के उन तीन करोड़ बच्चों में से एक है जिन्होंने कभी स्कूल का दरवाजा नहीं देखा है। या फिर यह कहा जाए कि गोविंद देश के उन आठ करो़ड़ बच्चों में से एक है जो किसी कारणवश स्कूल नहीं जा पाते।

चार साल पहले बनारस के एक रिक्शा चालक के बेटे ने भारतीय प्रशासनिक सेवा में 48वां स्थान हासिल किया था। हाल ही में दिल्ली के एक रिक्शा चालक के बेटे ने भी आईआईटी की परीक्षा उत्तीर्ण की है। ऐसी घटनाएं प्रेरणा और उत्साह देती हैं। लेकिन गोविंद न तो आईएस ऑफिसर बन सकता है और न हा इंजीनियर। कारण यही है कि परिवार के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि वह अपने लाडले का किसी स्कूल में दाखिला करा सकें और सरकार में इतनी इच्छा शक्ति नहीं दिखती कि गोविंद की शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित हो जाए।

गोविंद की उम्र आठ साल है। वह अपने परिवार के साथ यमुना की तलहटी पर बनी झुग्गियों में रहता है। दादा के बीमार हो जाने के बाद परिवार के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी गोविंद के पिता के कंधों पर आ गईं है। पिता पेशे से खेतिहर मजदूर है। आमदनी दादा की दवाईयों और राशन-पानी जुटाने में खत्म हो जाती है। ऐसे में गोविंद की पढ़ाई के बारे में सोचना किसी चुनौती से कम नहीं है।

जब मैं गोविंद के चार खंभों पर टिके तिरपाल के घर पहुंचा तो मुझे उसकी भैंस के पास जाने से उतना ही डर महसूस हो रहा था जितना कि गोविंद को मेरे पास आने में। उसके लिए मैं शायद एक अजनबी से भी ज्यादा ही कुछ था। हम तो बचपन में मिट्टी के खिलौनो से खेलते थे। लेकिन गोविंद के पास तो सचमुच की भैंस है।

गोविंद की दादी कहती है, "दिन भर छोरा या तो मेरा पल्लू पकड़े रहता है या फिर भैंस की पूंछ"। आमतौर पर दिल्ली जैसे महानगर में बच्चे खेलने के लिए या तो किसी पार्क में जाते हैं या फिर किसी मॉल के फन वर्ल्ड में। लेकिन गोविंद के लिए तो यमुना का यही तट पार्क है और उसकी भैस उसके लिए फन वर्ल्ड। भैंस की पीठ रप चड़ना और सींगों के साथ छे़ड़ छा़ड़ किसी फन से कम है क्या? कल्पना कीजिए कि फन वर्ल्ड वाले बच्चों को अगर गोविंद की भैंस के साथ खेलने का मौका मिले और गोविंद को फन वर्ल्ड जाने का।

खैर कल्पना की दुनिया से बाहर सच्चाई यही है कि गोविंद बड़ा होकर अपने पिता की तरह ही मजदूरी करने को मजबूर होगा। पढ़ने की उम्र निकल रही है। शिक्षा का अधिकार धरा का धरा रह जाएगा और एक बच्चा फिर बेकार हो जाएगा।

गोविंद और उसके पीछे चारपाई पर बीमार दादा
कैमरे से बचने की कोशिश में
गोविंद की दादी उपले इकठ्ठे करते हुए
दादी ने कहा तब जाके तब जाके फोटो खिंचवाने दिया
ऐसे घरों में बसता है देश का भविष्य
यमुना की तलहटी, गोविंद और उसकी भैंस
मैट्रो स्टेशन के लिए जाता साधा रास्ता
इन पतली टांगों को आगे जाकर मजदूरी करने के लिए तैयार होना है

Wednesday, July 07, 2010

एमसीडी और हॉकरों के बीच की मार्केट केमिस्ट्री

पालिका बाजार के बाहर कपड़े की मार्किट का जायजा लेता एमसीडी कर्मचारी। लेख और सभी फोटो :संदीप शर्मा

सिर के पीछे दोनों हाथ रख कर एमसीडी अधिकारियों की ओर देखते हुए दीपक कुमार कहता है,"एमसीडी वाले थे। यह साहब शेर की तरह आते हैं। जब आते हैं तो मार्किट में हड़कंप मच जाती है।" दीपक कुमार बिहार से है। वह पालिका बाजार के बाहर लगी कपड़ों की मार्किट में काम करता है। एमसीडी अधिकारी उसका कुछ सामान चालान के तौर पर बोरे में डाल कर ले गए। मालिक चालान भरेगा तो ही सामान वापिस मिलेगा।

एमसी़डी कर्मचारियों ने पालिका बाजार के बाहर कपड़ों की मार्किट में छापा मारा। अतिक्रमण और अनधिकृत दुकानों की जांच हुई। अनधिकृत दुकानों को तुरंत हटा दिया गया और जिन दुकानों में मालिक मौजूद नहीं थे उनका चालान काटा गया। ग्राहक हैरान परेशान खड़े थे। लेन-देन कुछ समय के लिए बंद हो गया। फिर भी दुकानदारों के बीच नो टेंशन का माहौल था। ऐसा इसलिए क्योंकि 300-400 रुपये का चालान भरने के बाद सामान वापस मिल जाएगा, फिर दो-तीन महीनों तक कोई छापा नहीं।

यह मार्किट सुबह से शाम तक ग्राहकों से ठस रहती है। सौ रुपये में टीशर्ट और डेढ़ सौ में जीन्स खरीदी जा सकती है। चीज फिट न बैठे तो वापिस की जा सकती है। लेकिन चीज कितनी टिकाऊ होगी इस बात की कोई गारेंटी नहीं। गारेंटी के बारे में किसी भी दुकानदार से पूछो तो एक ही जवाब मिलता है,"गारंटी तो आदमी की भी नहीं होती यह तो फिर भी कपड़ा है। और सौ-डेढ़ सौ की चीज में कौन गारंटी देता है।" अगर कोई ग्राहक फिर भी संतुष्ट न हो तो कहते हैं, "गारंटी की ज्याद ही पड़ी है तो शोरुम में क्यों नहीं जाते"। कपड़ों की इस मार्किट की एक ओर पालिका बाजार है और दूसरी ओर कनॉट प्लेस के शोरूम। पालिका बाजार और शोरूम से बाहर आने के बाद भी लोग यहां हाथ आजमाना नहीं भूलते।

राष्ट्रमंडल खेल नजदीक है इसलिए एमसीडी अधिकारी हॉकरों मार्किट में बार बार छापे मारे रहे हैं। ऐसे में लाईसेंस धारक तो नश्चिंत हैं लेकिन बिना लाईसेंस के दुकान चलाने वालों को रोज नए जुगाड़ भिड़ाने पड़ाते हैं । उन्हें एमसीडी कर्मचारियों के साथ सांठ-गांठ करनी पड़ती है। लेकिन अगर किसी की एमसीडी कर्मचारियों के साथ अच्छी कैमेस्ट्री तो जुगाड़ का भी जरुरत नहीं पड़ती। कर्मचारियों और हॉकरों के बीच की मार्किट केमिस्ट्री एक नया कंसेप्ट है।

जल्दी-जल्दी इकठ्ठा करने का आदेश

दूर होते ग्राहक......
एक ओर एमसीडी और दूसरी ओर ग्राहक
इनके लिए तो तमाशा ही था
माहौल गरमाया लेकिन बीच बीच में मजाक भी चलता रहा
ट्रक भर कर चालान हुआ
एमसीडी यूनाइटेड.....

Sunday, July 04, 2010

पानी पर एक प्रदर्शनी - इंडिया हैबिटेट सेंटर

नितिन टांडा निर्देशक(फोटोग्रॉफी और डॉक्यूमेंट्री)- इंडिया हैबिटेट सेंटर।लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

दी, नालों, झरनों और समुद्र की बलखाती लहरों से पैदा हर एक हलचल को कैमरे में कैद कर लोगों के दिमाग में एक नई हलचल पैदा करना नितिन टांडा का जुनून है। नितिन टांडा पैशे से एक फोटोग्रॉफी निर्माता और निर्देशक है। दुनिया और कैमरे के बीच के रिश्तों को समझना इन्होंने अपने स्कूल टाइम से ही शुरू कर दिया था। प्रबंधन की पढ़ाई के बाद नितिन टांडा ने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में प्रबंधक के तौर पर नौकरी की। नौकरी के दौरान भी टांडा साहब के हाथों में कैमरा बराबर बना रहा। जब नौकरी और कैमरे के बीच तारतम्य न बन पाया तो नौकरी का चोला उतार कर बस कैमरे का ही दामन थाम लिया। नितिन टांडा अभी तक 20 से अधिक डॉक्युमेंट्री फिल्में भी बना चुके हैं। मुंबई इंटनेशनल फिल्म फेस्टिवल और युनेस्को फेस्टिवल ऑफ डॉक्युमेंट्री फिल्म्स् में इनकी ये कृतियां प्रदर्शित हो चुकी हैं।


नितिन टांडा इन दिनों आईआईटी दिल्ली के छात्रों को एनिमेशन फिल्म निर्माण पढ़ा रहे हैं।

अपने इसी कैशल के बूते इन दिनों वह दुनिया को पृथ्वी में व्यापत पंचमहाभूतों की अहमीयत समझाते फिर रहे हैं। नितिन टांडा ने दो वर्षों तक सिर्फ और सिर्फ पानी पर आधारित फोटोग्रॉफी की है। इस दौरान इन्होंने हिमालय की शिखर से लेकर समंदर की गहराई तक, भारत के देहात की सुनसान तलैया से लेकर अमेरिका के आलीशान बीचों तक पानी के जितने रंगों को समेटा है, अदभुत है।

अपने इस अथक प्रयास के कुछ नमूने इन्होंने पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य पर इंडिया हैबीटेट सेंटर में भी प्रदर्शित किए। प्रदर्शनी के बाद मैंने भी पानी के कुछ फोटो खींचने के कोशिश की।


नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी

नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी
नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी


पानी पर मिज़ाजों के शहर की तस्वीरें...

लोधी गार्डन का तालाब


लोधी गार्डन में सूर्यास्त का दृश्य
लोधी गार्डन
लोधी गार्डन

नितिन टांडा की फोटो प्रदर्शनी की आनंद लेता दर्शक लोधी गार्डन
लोधी गार्डन
लोधी गार्डन लोधी गार्डन
लोधी गार्डन

Thursday, July 01, 2010

जमुना की बेचैन तलहटी में बसता एक अलग समाज

यमुना की तलहटी से शहर की ओर एक नज़र । लेख और सभी फोटो संदीप शर्मा

यमुना की गोदी में रहने वाले लोग हमेशा आकर्षित करते हैं। तेज बरसात और उफनता स्तर हो तो सब ध्वस्त, नहीं तो नदी की सूखी तलहटी ही रहने की जगह। यमुना बैंक मैट्रो स्टेशन के पास दूसरा बंदायू बसता है। दूसरा इसलिए कि यहां रहने वाला तकरीबन हर इंसान उत्तरप्रदेश के बंदायू से है। यहां लोग पट्टे पर खेती करते है। एक फसल के दौरान एक बीघा जमीन के लिए 1,000 से 1,200 रुपये तक चुकता करते हैं। साधन मालिक के और श्रम इन लोगों का। बोर का पानी पीना, उपले से खाना पकाना और भैंस के दूध की चाय पीना सब कुछ यहां गांव जैसा ही है।

सब्जियों की फसल पर फूल आने शुरू हो गए है। यहां के किसानों को आज कल कमर सीधी करने के लिए थोड़ा ज्यादा समय मिल जाता है। खटिया खेत के किसी भी कोने में बिछा दो नींद न आने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। मच्छरों की भनभनाहट और तर कर देने वाली उमस भी नींद के मजे को कम नहीं कर सकती।

जब मेरा जाना हुआ तो बंदायू का महेंद्र, तोरी के खेत में चारपाई पर लेटा हुआ था। वह अपने पूरे परिवार के साथ यमुना के किनारे सपाट मैदानों में खेती करता है। पांच बीघा जमीन पट्टे पर ली है। दो में तोरी, एक में भिंडी और दो में ही घीया उगाया है। तोरी की फसल तैयार है, इसलिए महेंद्र आज-कल लक्ष्मीनगर मंडी के चक्कर लगा रहा है। महेंद्र कहता है कि चौमासा निकलते निकलते जब खेती का काम बढ़ेगा तब तक तो आराम ही है।

बदायू का राम तीरथ भी यमुना किनारे खेती करता है। लेकिन थोड़े आराम के इस सीजन का वह आनंद नहीं ले पा रहा है। उसके सभी खेत मैट्रो लाइन से लगते है। नगरपालिका ने दिल्ली के सुंदर बनाने के लिए दो दिन पहले ही उसकी झोपड़ी पर जेसीबी मशीन चला दी। जेसीबी 2004 में भी चली थी। जब 40,000 झोपड़ियों को ढहा दिया गया। डेढ़ लाख गरीब बेघर हो गए। 30 सालों की रिहाइश को मिनटों में खाली करा दिया गया। अदालत के आदेश थे कि ये रिहाइश दिल्ली मास्टर प्लान 1962 के खिलाफ है। सरकार तो बस आदेश का पालन कर रही थी।

राम तीरथ आज कल बेघर है। इसी खातिर परेशान है। यमुना की सूखी तलहटी जैसी रहने की जगह मिल जाए, बस तलाश है।


राम तीरथ के पास सात बीघा जमीन पट्टे पर है। वे दो भाई है। लेकिन दोनों की बीवी एक है। उसकी मां कहती है, "घर में दो बहुएं होंगी तो रोज झगड़ा होगा"। खैर, दोनों भाईयों में बड़ा प्यार है और दोनों का एक बच्चा है। बच्चे की स्कूल जाने की उम्र हो चुकी है लेकिन वह अभी भी पूरा दिन दादी का पल्लू झटकने और अपनी भैंस की सवारी में बिता देता है। शिक्षा का अधिकार कानून बन चुका है। लेकिन ऐसे कानून गरीबों को कम ही फायदा करते हैं।

राम तीरथ कहता है, "सीजन अच्छा निकला तो स्कूल भेजने की सोचूंगा। इधर स्कूल है नहीं और शहर में रहने के लिए पैसे की जरूरत होती है"।
जब मैं यमुना नदी की ओर जा रहा था तभी राम तीरथ मुझे बीच रास्ते में मिला था। राम तीरथ उस समय यमुना में स्नान लौट रहा था।

जिन लोगों के पास खेती के लिए कम जमीन है, वे पैसा बनाने के वैकल्पिक रास्ते ढूंढते है। गांजा मलना इनमें से ही एक है। हालांकि यह गैरकानूनी है, लेकिन जब खरीदने वाले वर्दी वाले ही हो तो।

जब यमुना के किनारे पुल के नीचे पहुंचा तो नजारा ही कुछ और था। पहले पतले से पट्टे पर रस्सी बांध कर जोर से फैंका। फिर यमुना के तल में ठीक से समा जाने पर सलीके से अपनी ओर खींचा। मैंने सोचा कि मछली को पकड़ने की कोशिश हो रही है। लेकिन इतने गंदले पानी में मछली कैसे हो सकती है। इसके बाद उस पट्टे को हाथ पर धर कर इस पर से कुछ चीजें निकाली और फट्टे को फिर से नदी में फैंक दिया।

आखिर ये लोग कर क्या रहे हैं कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा था। रेलवे ट्रेक के पिलर के सहारे सुस्ताते एक आदमी से पूछा। मालूम हुआ कि पेट को पालने का माजरा हो रहा था। चुंबक के फट्टे के जरीए यमुना के तल से सिक्के निकालने की जुगत हो रही है। लोग पूजा सामग्री जो डाल जाते हैं, वो भी थोक के भाव में। दिन भर में 50-60 रुपये तो बन ही जाते है।

वातानुकूलित मैट्रो में बैठकर जब यमुना पर बने पुल से गुजरना होता है, तो न जाने क्यों कल्पना शक्ति पर ताले टंगे होते हैं। पुल के नीचे रोजी रोटी के लिए ऐसा संघर्ष भी हो रहा होगा कभी सोचा नहीं था।

जाने क्यों ऐसा लगता है कि यमुना किनारे और यमुना की सूखी गोदी में एक अलग दिल्ली बसती है। मैट्रो की चुंधियाती जिंदगी यहां आते आते फक्क सफेद पड़ जाती है। एसी और कूलर में बैठ कर जब दिल्ली शहर में रिकॉर्ड तोड़ तापमान की खबरें सुनी जा रही होती है, तो इस इलाके में लोग खेतों में पसीना बहा रहे होते है। इन लोगों को न तो बिजली कटौती सताती हैं और न ही पानी की बाधित सप्लाई। जो यमुना कईयों के लिए बदबूदार नाला है, वही यमुना इन लोगों के लिए आज भी नदी ही है। मां कैसी भी हो औलाद को तो दुनिया में सबसे सुंदर ही लगती है।

यमुना करीब 1,370 किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। मगर इसके सफर में दिल्ली के 22 किलोमीटर पसीना छुड़ा देते हैं। विश्वास करने वालों पर विश्वास करें तो इस 22 किलोमीटर के सफर में यमुना में लगभग 329.6 करोड़ टन कचरा प्रति दिन के हिसाब से गिरता है। यमुना के 5000 हैक्टेयर के इस मैदान में अब भी लगभग तीन लाख लोग रहते है। लेकिन प्रदूषण के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं। नदी को प्रदूषित करने में कल-कारखानों, उधोगों की बड़ी भूमिका है। मगर, यमुना के रखरखाव के नाम पर डंडा इन मुफलिसों पर ही चलता है। राष्ट्रमंडल खेल गांव, अक्षरधाम, मैट्रो मुख्यालय और दिल्ली सचिवालय भी तो यमुना के इसी मैदान में खड़े हैं। एक समय इस मैदानी इलाके में किसी भी तरह की निर्माण प्रतिबंधित था। लेकिन सरकार ने अपने लिए कानून बदलने में देर नहीं लगाई।

यमुना की बदहाली के कारखाने .......

रेल पुल के नीचे सिक्कों की तलाश


कड़कती धूप में जमुना के किनारे - राम तीरथ
यमुना की गोद में क्षितिज तक फैली हरियाली

उपलों से जलता है काकी के घर का चूल्हा

बात जब बस सिर ढकने की हो

अरबी की फसल
भिंडी की लहलहाती फसल

"फसल की खैरियत अपनी खैरियत" राम तीरथ


बेल पर लटकती तोरी
दोपहर के दो पल ..... महेंद्र और रामतीरथ
कहते हैं कि इन पौधों से डीजल बनता है

शीशम का जंगल

गांजा खुद ही उग आता है
जेसीबी मशीन का घाव