Thursday, July 01, 2010

जमुना की बेचैन तलहटी में बसता एक अलग समाज

यमुना की तलहटी से शहर की ओर एक नज़र । लेख और सभी फोटो संदीप शर्मा

यमुना की गोदी में रहने वाले लोग हमेशा आकर्षित करते हैं। तेज बरसात और उफनता स्तर हो तो सब ध्वस्त, नहीं तो नदी की सूखी तलहटी ही रहने की जगह। यमुना बैंक मैट्रो स्टेशन के पास दूसरा बंदायू बसता है। दूसरा इसलिए कि यहां रहने वाला तकरीबन हर इंसान उत्तरप्रदेश के बंदायू से है। यहां लोग पट्टे पर खेती करते है। एक फसल के दौरान एक बीघा जमीन के लिए 1,000 से 1,200 रुपये तक चुकता करते हैं। साधन मालिक के और श्रम इन लोगों का। बोर का पानी पीना, उपले से खाना पकाना और भैंस के दूध की चाय पीना सब कुछ यहां गांव जैसा ही है।

सब्जियों की फसल पर फूल आने शुरू हो गए है। यहां के किसानों को आज कल कमर सीधी करने के लिए थोड़ा ज्यादा समय मिल जाता है। खटिया खेत के किसी भी कोने में बिछा दो नींद न आने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। मच्छरों की भनभनाहट और तर कर देने वाली उमस भी नींद के मजे को कम नहीं कर सकती।

जब मेरा जाना हुआ तो बंदायू का महेंद्र, तोरी के खेत में चारपाई पर लेटा हुआ था। वह अपने पूरे परिवार के साथ यमुना के किनारे सपाट मैदानों में खेती करता है। पांच बीघा जमीन पट्टे पर ली है। दो में तोरी, एक में भिंडी और दो में ही घीया उगाया है। तोरी की फसल तैयार है, इसलिए महेंद्र आज-कल लक्ष्मीनगर मंडी के चक्कर लगा रहा है। महेंद्र कहता है कि चौमासा निकलते निकलते जब खेती का काम बढ़ेगा तब तक तो आराम ही है।

बदायू का राम तीरथ भी यमुना किनारे खेती करता है। लेकिन थोड़े आराम के इस सीजन का वह आनंद नहीं ले पा रहा है। उसके सभी खेत मैट्रो लाइन से लगते है। नगरपालिका ने दिल्ली के सुंदर बनाने के लिए दो दिन पहले ही उसकी झोपड़ी पर जेसीबी मशीन चला दी। जेसीबी 2004 में भी चली थी। जब 40,000 झोपड़ियों को ढहा दिया गया। डेढ़ लाख गरीब बेघर हो गए। 30 सालों की रिहाइश को मिनटों में खाली करा दिया गया। अदालत के आदेश थे कि ये रिहाइश दिल्ली मास्टर प्लान 1962 के खिलाफ है। सरकार तो बस आदेश का पालन कर रही थी।

राम तीरथ आज कल बेघर है। इसी खातिर परेशान है। यमुना की सूखी तलहटी जैसी रहने की जगह मिल जाए, बस तलाश है।


राम तीरथ के पास सात बीघा जमीन पट्टे पर है। वे दो भाई है। लेकिन दोनों की बीवी एक है। उसकी मां कहती है, "घर में दो बहुएं होंगी तो रोज झगड़ा होगा"। खैर, दोनों भाईयों में बड़ा प्यार है और दोनों का एक बच्चा है। बच्चे की स्कूल जाने की उम्र हो चुकी है लेकिन वह अभी भी पूरा दिन दादी का पल्लू झटकने और अपनी भैंस की सवारी में बिता देता है। शिक्षा का अधिकार कानून बन चुका है। लेकिन ऐसे कानून गरीबों को कम ही फायदा करते हैं।

राम तीरथ कहता है, "सीजन अच्छा निकला तो स्कूल भेजने की सोचूंगा। इधर स्कूल है नहीं और शहर में रहने के लिए पैसे की जरूरत होती है"।
जब मैं यमुना नदी की ओर जा रहा था तभी राम तीरथ मुझे बीच रास्ते में मिला था। राम तीरथ उस समय यमुना में स्नान लौट रहा था।

जिन लोगों के पास खेती के लिए कम जमीन है, वे पैसा बनाने के वैकल्पिक रास्ते ढूंढते है। गांजा मलना इनमें से ही एक है। हालांकि यह गैरकानूनी है, लेकिन जब खरीदने वाले वर्दी वाले ही हो तो।

जब यमुना के किनारे पुल के नीचे पहुंचा तो नजारा ही कुछ और था। पहले पतले से पट्टे पर रस्सी बांध कर जोर से फैंका। फिर यमुना के तल में ठीक से समा जाने पर सलीके से अपनी ओर खींचा। मैंने सोचा कि मछली को पकड़ने की कोशिश हो रही है। लेकिन इतने गंदले पानी में मछली कैसे हो सकती है। इसके बाद उस पट्टे को हाथ पर धर कर इस पर से कुछ चीजें निकाली और फट्टे को फिर से नदी में फैंक दिया।

आखिर ये लोग कर क्या रहे हैं कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा था। रेलवे ट्रेक के पिलर के सहारे सुस्ताते एक आदमी से पूछा। मालूम हुआ कि पेट को पालने का माजरा हो रहा था। चुंबक के फट्टे के जरीए यमुना के तल से सिक्के निकालने की जुगत हो रही है। लोग पूजा सामग्री जो डाल जाते हैं, वो भी थोक के भाव में। दिन भर में 50-60 रुपये तो बन ही जाते है।

वातानुकूलित मैट्रो में बैठकर जब यमुना पर बने पुल से गुजरना होता है, तो न जाने क्यों कल्पना शक्ति पर ताले टंगे होते हैं। पुल के नीचे रोजी रोटी के लिए ऐसा संघर्ष भी हो रहा होगा कभी सोचा नहीं था।

जाने क्यों ऐसा लगता है कि यमुना किनारे और यमुना की सूखी गोदी में एक अलग दिल्ली बसती है। मैट्रो की चुंधियाती जिंदगी यहां आते आते फक्क सफेद पड़ जाती है। एसी और कूलर में बैठ कर जब दिल्ली शहर में रिकॉर्ड तोड़ तापमान की खबरें सुनी जा रही होती है, तो इस इलाके में लोग खेतों में पसीना बहा रहे होते है। इन लोगों को न तो बिजली कटौती सताती हैं और न ही पानी की बाधित सप्लाई। जो यमुना कईयों के लिए बदबूदार नाला है, वही यमुना इन लोगों के लिए आज भी नदी ही है। मां कैसी भी हो औलाद को तो दुनिया में सबसे सुंदर ही लगती है।

यमुना करीब 1,370 किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। मगर इसके सफर में दिल्ली के 22 किलोमीटर पसीना छुड़ा देते हैं। विश्वास करने वालों पर विश्वास करें तो इस 22 किलोमीटर के सफर में यमुना में लगभग 329.6 करोड़ टन कचरा प्रति दिन के हिसाब से गिरता है। यमुना के 5000 हैक्टेयर के इस मैदान में अब भी लगभग तीन लाख लोग रहते है। लेकिन प्रदूषण के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं। नदी को प्रदूषित करने में कल-कारखानों, उधोगों की बड़ी भूमिका है। मगर, यमुना के रखरखाव के नाम पर डंडा इन मुफलिसों पर ही चलता है। राष्ट्रमंडल खेल गांव, अक्षरधाम, मैट्रो मुख्यालय और दिल्ली सचिवालय भी तो यमुना के इसी मैदान में खड़े हैं। एक समय इस मैदानी इलाके में किसी भी तरह की निर्माण प्रतिबंधित था। लेकिन सरकार ने अपने लिए कानून बदलने में देर नहीं लगाई।

यमुना की बदहाली के कारखाने .......

रेल पुल के नीचे सिक्कों की तलाश


कड़कती धूप में जमुना के किनारे - राम तीरथ
यमुना की गोद में क्षितिज तक फैली हरियाली

उपलों से जलता है काकी के घर का चूल्हा

बात जब बस सिर ढकने की हो

अरबी की फसल
भिंडी की लहलहाती फसल

"फसल की खैरियत अपनी खैरियत" राम तीरथ


बेल पर लटकती तोरी
दोपहर के दो पल ..... महेंद्र और रामतीरथ
कहते हैं कि इन पौधों से डीजल बनता है

शीशम का जंगल

गांजा खुद ही उग आता है
जेसीबी मशीन का घाव