Friday, September 10, 2010
Thursday, September 09, 2010
गुलमोहर पार्क की पत्रकार कौलोनी
गुलमोहर पार्क-पत्रकार कौलोनी का प्रवेश द्वार। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा |
40 साल पहले की बात करें तो दृश्य कुछ और था। हॉज खास के पौश इलाके में बसाई गई पत्रकार कौलोनी बस अब नाम की रह गई है। समय की रील चल रही है दृश्य बदल रहा है और पत्रकार गायब हो रहे है। इसी इलाके में चालीस साल से दुकानदारी कर रहे विनोद सरीन बताते हैं कि बहुतेरे पत्रकारों ने इस इलाके में कोठियं बेच दी है। सरीन जिस दुकान के मालिक है वह दुकान उन्हें उनके पिताजी ने 45 हजार रुपये में खरीद कर दी थी। आज विनोद जब अपनी दुकान का भाव मोलते हैं तो 60 लाख से एक पैसा भी कम कुबूल नहीं। विनोद के पिता अंग्रेजों की एयर फोर्स में इंजीनियर की हैसियत पर थे। उनके द्वारा लगाई गई चक्की का आटा विनोद सरीन आज तक खा रहे है। चाहते तो अच्छे दामों में इस दुकान का सौदा भी कर सकते थे। जैसे इस इलाके में रहने वाली पत्रकार पीढ़ी ने किया।
Monday, September 06, 2010
कच्ची उम्र के पक्के खिलाड़ी
बेरसराय फ्लाइोवर के नीचे ताश मंडली। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा |
वैसे ताश खेलना कोई बुरी बात नहीं है। माइंड गेम है। मैंने भी दोस्तों के साथ खूब ताश पीटे हैं। बिस्कुट से लेकर जानम तक दाव पर लगाया जाता था। यह अलग बात है कि कोई दाव आज तक फलित नहीं हुआ। ताश पीटना बिग टाइमपास था।
लेकिन इन बच्चों का मामला कुछ और है। दाव पर दिन भर की कमाई है। हारने का भय उतना ही है जितनी जीतने पर खुशी। उम्र से महज 10-12 साल के लगते है। बेरसराय के फ्लाइओवर के नीचे दिन के समय मंडली जमती है। अभी तक दिल्ली के फ्लाइओवर के नीचे अधेड़ उम्र के लागों को ही मंडली जमाते देखा था। कच्ची उम्र के खिलाड़ियों के साथ यह पहला वास्ता था। महसूस हुआ कि देश का भविष्य तो जुआ भी खेलता है।
Friday, September 03, 2010
बाराखंभा रोड़ - जूतेसाजों का शिक्षक दिवस
जूता साज अमित। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा। |
"शू-शाइन करा लो सर, चारों तरफ से कर देंगे" ये ऐसे शब्द हैं जो 13 साल के अमित को सुबह सात बजे से शाम के पांच बजे तक बोलते रहना होता है। इन्हीं शब्दों पर इसकी रोज की कमाई निर्भर है। शिवा लाल क्योंकि उम्र में सबसे बड़ा है और ग्राहकों को आकर्षित करने में माहिर है इसलिए सबसे अच्छा धंधा भी वही करता है।
Thursday, August 19, 2010
बरसात में दिल्ली - आपा ना खो बैठे ये बादल
जिया सराय की गलियां। लेख व सभी : फोटो संदीप शर्म |
बरसात की खुशियां बटोरता देख रहा था। कोई भीगने को आतुर तो कोई बचने की कोशिश में भीगा जा रहा था। साथ में इंडियंन एक्सप्रेस स्कैन कर रहा था। फ्रंट पेज पर द ड्रुक व्हाइट स्कूल के बच्चों के साथ आमिर खान की फोटो छपी थी। लेह में बादल फटने से यह स्कूल बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है।
लेह में बरसात का कहर बरपा और कईं लोग मारे गये और अन्य कईं बेघर गए। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मुजफ्फरगढ़ में भी स्थिति नाजुक बताई जा रही है। बरसात आपा खो बैठी थी। अति बरसात ने सब तहस-नहस कर दिया। दिल्ली में पिछले कुछ दिनों से रुक-रुक कर बरसात हो रही है। बेशक दिल्ली चारों तरफ से खुदी पड़ी है फिर भी दिल्लीवासी बरसात का आनंद ले रहे हैं। बरसात आपे में रहे तभी खैरियत है।
अति का अंजाम बुरा। चाणक्य के शब्दों में कुछ इस तरह .......
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावण ।
अतिदनात् बलिर्बध्दो अति सर्वत्र वर्जयेत् ।।
अति सुंदरता के कारण सीता का हरण हुआ। अति दंभ के कारण रावण मारा गया । अति दयालुता के कारण राजा बली संतट में फंसा। अर्थात् अति की हर चीज बुरी होती है।
Saturday, August 14, 2010
आज़ाद भारत की रेड-लाइट
आईआईटी दिल्ली फ्लाइ-ओवर रेड-लाइट सिगनल के इंतजार में। |
डीटीसी 507 में आईआईटी दिल्ली की रेड-लाइट पर ब्रेक लगता है। छपरा का भीम सिंह डीटीसी के ड्राइवर को तिरंगा बेचने के लिए आगे बढ़ता है । दो रुपये में एक तिरंगा । उसी बस की पिछली सीट पर मैं सवार था । इंडियागेट जाना था । सोचा कि भींम सिंह को पूछता चलूं कि उसके लिए आजादी का क्या मतलब है और उसका 15 अगस्त के लिए क्या प्लान है ?
पूछताछ करने में एक अजनबी सी हिचकिचाहट । कहीं बिगड़ न जाए । खैर बात हुई तो भीम सिंह बोला,"मेरे लिए आजादी का मतलब झंडे बेचना है और 15 अगस्त को भी यही करूंगा ।"
भीम सिंह सात साल का था जब उसने पहली बार दिल्ली की रेड-लाइट पर किसी को तिरंगा बेचा था । आज भीम सिंह 17 साल का हो गया है । एक झंडे की कीमत पचास पैसे से दो रुपये पहुंच गई लेकिन भीम सिंह की कीमत अब भी वही है । माता - पिता छपरा में खेती करते हैं । एक छोटा भाई है जो दसवीं में पढता है । भीम सिंह अपनी कमाई में से लगभग हजार-पंद्रह सौ घर भेजता है । कहता है कि भाई को पढ़ाऊंगा । इतने में रेड सिंगनल हो गया । एक के पीछे एक गाड़ी रुकना शुरू हुई। भीम सिंह के पास अब मुझसे बतियाने का समय नहीं था । उसने तिरंगों का गुच्छा लेकर एक के बाद एक गाड़ी की खिड़की से चिपकना शुरु किया । छोटा भाई पढ़-लिख कर कुछ बन गया तो भीम सिंह आजादी के लड्डू उसी दिन बाटेंगा ।
Wednesday, August 11, 2010
हिंदुस्तान की तकसीम और बाद का तमस
जेएनयू - भोपाल के तमस के सामने भीष्म साहनी का 'तमस ' । |
.........I swear by Allah. when my turn came, she said neither 'no' nor 'yes' as she lay under me. she didn't ever stir. Then i found that she was dead. I had been doing this with my corpse.
When we confronted this girl she started screaming. 'Haramjadi'. she was begging us not to kill her.
"All the seven of you can have me", she pleaded. "Do with me what you like but dont kill me".
so?
"so what?' Aziz plunged his knife into her breast. she fell down dead.".....
Wednesday, July 14, 2010
ग्रीन पार्क - जगन्नाथ रथ यात्रा में उमड़े उड़िया
भगवान जगन्नाथ की पवित्र रथ यात्रा। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा
ग्रीन पार्क का माहौल उड़िया हो चला था । जगन्नाथ रथ यात्रा का पर्व कहने को तो पूरे भारत में मनाया जाता है लेकिन उड़ीसावासियों के लिए यह कुछ विशेष होता है । ग्रीन पार्क की हरियाली के बीच बने जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे । लगभग नब्बे प्रतिशत लोग उड़ीसा के थे । जगन्नाथ पुरी जो नहीं जा पाते हैं वे यहीं भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर लेते है ।
एक मान्यता के अनुसार आज के दिन भगवान जगन्नाथ उनके भाई बालभद्र और बहन सुभद्रा सात दिनों के लिए अपनी मौसी के घर घूमने जाते है । भगवान जगन्नाथ की उनकी मौसी के घर यात्रा की याद में ही यह रथ यात्रा निकाली जाती है । जगन्नाथ पुरी की बात करें तो तीन अलग अलग रथ बनाए जाते है । और हजारों की संख्या में लोग उन रथों को रस्सी से खींचते हैं । लेकिन दिल्ली में भगवान जगन्नाथ , बालभद्र और सुभद्रा को एक ही रथ में रखा जाता है और इसे खींचने के लिए सैकड़ों लोग इकठ्ठा होते हैं ।
इस दिन ग्रीन पार्क नें मेला भी लगता है । भगवान के दर्शन और मेले की खरीदारी साथ साथ चलती है । सड़क के दोनों ओर खूब दुकानें सजती है । मेले के छोले-भटूरे, गोलगप्पे, और टिक्की का स्वाद तो अलग ही होता है । पूजा-पाठ के सामान से सजी दुकानों पर भी खूब भीड़ रहती है । ऐसे मौके पर टैटू बनवाने का भी लोगों में विशेष क्रेज रहता है ।
मंदिर के भीतर जाना है तो कतार में खड़े होना पड़ता है और अंकुरीत चने और मूंग का भोग चाहिए तो भीड़ में थोड़ा पसीना बहाना पड़ता है, भंडारा तो दिन भर चलता रहता है ।
रथयात्रा सुबह सात बजे शुरु हुई थी । मंदिर का पूरा चक्कर लगाकर रथ वापस मंदिर पर पहुंचता । सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे । माडिया के लिए एक अलग से चबूतरा बना था । माइक पर बजते जगन्नाथ स्वामी........ नयन नक्ष स्वामी......के सुरीले भजन और सड़क के बीचों बीच ढोलकी की धुन-ताल पर थिरकती भक्त मंडली ।
पीपी नायक मूलत उड़िसा के रहने वाले है । पेशे से किसी निजी कंपनी में प्रबंघक हैं और चार साल से दिल्ली में ही जॉब कर रहे हैं । कार्पोरेट जिंदगी की व्यस्त शैली ने उन्हें तीन साल इस पवित्र यात्रा में शामिल होने से रोके रखा । इस बार भाग्य से इस दिन उनका वीकली ऑफ था । पीपी नायक कहते हैं, "सब एडजेस्ट करना पड़ता है । भुवनेश्वर होता तो परिवार के साथ जगन्नाथ पुरि जाता । यहां तो बस अकेले ही आना जाना होता है।"
सड़क से मंदिर
ग्रीन पार्क का माहौल उड़िया हो चला था । जगन्नाथ रथ यात्रा का पर्व कहने को तो पूरे भारत में मनाया जाता है लेकिन उड़ीसावासियों के लिए यह कुछ विशेष होता है । ग्रीन पार्क की हरियाली के बीच बने जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे । लगभग नब्बे प्रतिशत लोग उड़ीसा के थे । जगन्नाथ पुरी जो नहीं जा पाते हैं वे यहीं भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर लेते है ।
एक मान्यता के अनुसार आज के दिन भगवान जगन्नाथ उनके भाई बालभद्र और बहन सुभद्रा सात दिनों के लिए अपनी मौसी के घर घूमने जाते है । भगवान जगन्नाथ की उनकी मौसी के घर यात्रा की याद में ही यह रथ यात्रा निकाली जाती है । जगन्नाथ पुरी की बात करें तो तीन अलग अलग रथ बनाए जाते है । और हजारों की संख्या में लोग उन रथों को रस्सी से खींचते हैं । लेकिन दिल्ली में भगवान जगन्नाथ , बालभद्र और सुभद्रा को एक ही रथ में रखा जाता है और इसे खींचने के लिए सैकड़ों लोग इकठ्ठा होते हैं ।
इस दिन ग्रीन पार्क नें मेला भी लगता है । भगवान के दर्शन और मेले की खरीदारी साथ साथ चलती है । सड़क के दोनों ओर खूब दुकानें सजती है । मेले के छोले-भटूरे, गोलगप्पे, और टिक्की का स्वाद तो अलग ही होता है । पूजा-पाठ के सामान से सजी दुकानों पर भी खूब भीड़ रहती है । ऐसे मौके पर टैटू बनवाने का भी लोगों में विशेष क्रेज रहता है ।
मंदिर के भीतर जाना है तो कतार में खड़े होना पड़ता है और अंकुरीत चने और मूंग का भोग चाहिए तो भीड़ में थोड़ा पसीना बहाना पड़ता है, भंडारा तो दिन भर चलता रहता है ।
रथयात्रा सुबह सात बजे शुरु हुई थी । मंदिर का पूरा चक्कर लगाकर रथ वापस मंदिर पर पहुंचता । सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे । माडिया के लिए एक अलग से चबूतरा बना था । माइक पर बजते जगन्नाथ स्वामी........ नयन नक्ष स्वामी......के सुरीले भजन और सड़क के बीचों बीच ढोलकी की धुन-ताल पर थिरकती भक्त मंडली ।
पीपी नायक मूलत उड़िसा के रहने वाले है । पेशे से किसी निजी कंपनी में प्रबंघक हैं और चार साल से दिल्ली में ही जॉब कर रहे हैं । कार्पोरेट जिंदगी की व्यस्त शैली ने उन्हें तीन साल इस पवित्र यात्रा में शामिल होने से रोके रखा । इस बार भाग्य से इस दिन उनका वीकली ऑफ था । पीपी नायक कहते हैं, "सब एडजेस्ट करना पड़ता है । भुवनेश्वर होता तो परिवार के साथ जगन्नाथ पुरि जाता । यहां तो बस अकेले ही आना जाना होता है।"
सड़क से मंदिर
Tuesday, July 13, 2010
नेहरू प्लेस - डीडीए का छापा और हॉकरों की गिड़गिड़ाहट
डीडीए की निगरानी और सामान समेटते हॉकर। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा
एक और छापा पड़ते देख रहा था। डीडीए के अधिकारी और पुलिसवाले घूम रहे थे और वहां दुकान लगाकर बैठे लोगों के दिल तेज-तेज धड़क रहे थे। बहुतों की दुकान तय आकार से बाहर जा रही थी। आज इन्हें बिखेरा जाना तय था। किसी की रोजी उजड़ते देखने के पैशे में न जाने क्या रखा है। आखों से आंसुओं को बहते, हाथों को रहम के लिए जुड़ते और गिड़गिड़ाते दुकानदारों को देखना विचलित कर देने वाला रहा। एक बार फिर। नेहरू प्लेस के इतिहास पर बात फिर कभी होगी। अभी बात इस घटना की। कपड़ों की दुकानें, जूतों की दुकानें, सीडी की दुकानें, हार्डवेयर की दुकानें, उपकरण रिपेयर करने की दुकानें और छोटे-भटूरे की दुकान भी प्रभावित हुईं।
नेहरू प्लेस में हॉकरों को दुकान लगाने के लिए या तो कोर्ट के स्टे ऑर्डर होना जरूरी है या फिर मानुषी संगठन द्वारा दिया गया प्रमाण पत्र। डीडीए ने नेहरु प्लेस मार्केट की शोभा बढ़ाने के लिए इन हॉकरों को हटाने का निर्णय लिया था। लेकिन साथ ही वादा भी किया था कि हॉकरों को वैकल्पिक जगह मुहैया करा दी जाएगी। आज से दो साल पहले अप्रैल 2008 में हॉकरों को हटा दिया। ना कोई नोटिस दिया ना हा कोई वैकल्पिक जगह। अस्सी के दशक से यहां दुकानदारी कर रहे हॉकरों के लिए यह बड़ा धक्का था। ऐसी स्थिति में गैरसरकारी संगठन मानुषी आगे आया। सभी हॉकरों ने मानुषी के बैनर तले अदालत का रुख किया।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले का संज्ञान लिया और डीडीए के नोटिस पर स्टे ऑर्डर दे दिया। साथ ही अदालत नें मार्किट की व्यस्तता को देखते हुए दुकान का दायरा भी निश्चित कर दिया। 4 बाई 6 में दुकानें फैलाने का सख्त आदेश दिया।
लेकिन, सभी हॉकरों का मानना है कि दुकान का यह साइज बहुत कम है। इस दायरे में दुकान लगाना और काम करना मुश्किल है। यही कारण है कि सभी हॉकर अदालत के इस आदेश को परे रख कर दुकान का आकार 14 से 16 फुट तक बढ़ा देते है। कारणवश मार्किट कईं बार घिच-पिच हो जाती है। कुछ हॉकर ऐसे हैं जिनके पास न तो अदालत के स्टे ऑर्डर है और न ही मानुषी संगठन का पहचान पत्र। इनकी संख्या तीन सौ से भी अधिक है।
जब दुकानों का आकार बढ़ जाता है और हॉकरों की संख्या बढ़ जाती है तो डीडीए को दखल
देनी पड़ती है। पुलिस और डीडीए कर्मचारी जत्थे में निकलते हैं और मार्किट का मुआयना करते हैं। जिसकी दुकान 4बाई6 से ज्यादा में फैली होता है उसके फट्टे जब्त कर लिए जाते है। अनधिकृत दुकानों को हटाया जाता है। छापे के समय सॉफ्टवेयर बेचने वाले लड़के और कार्टरेज रीफिल करने वाले दुकानदार कुछ देर के लिए छिप जाते है।
बस कहना यही है कि एशिया की सबसे बड़ी इस आईटी मार्किट का प्रबंध कैसे हो? मार्किट की शोभा भी एक मुद्दा है और यहां रोजी कमाने वाले हॉकर भी। हॉकरों को यहां से पूर्णरूप से हटा कर उन्हें जंगल का रास्ता दिखाना उचित नहीं। समाधान कुछ ऐसा हो ताकि रोजी भी बचे और मार्किट व्यवस्थित भी हो।
डीडीए द्वारा तैयार नक्शे पर नजर डालते डीडीए अधिकारी और हॉकर
एक और छापा पड़ते देख रहा था। डीडीए के अधिकारी और पुलिसवाले घूम रहे थे और वहां दुकान लगाकर बैठे लोगों के दिल तेज-तेज धड़क रहे थे। बहुतों की दुकान तय आकार से बाहर जा रही थी। आज इन्हें बिखेरा जाना तय था। किसी की रोजी उजड़ते देखने के पैशे में न जाने क्या रखा है। आखों से आंसुओं को बहते, हाथों को रहम के लिए जुड़ते और गिड़गिड़ाते दुकानदारों को देखना विचलित कर देने वाला रहा। एक बार फिर। नेहरू प्लेस के इतिहास पर बात फिर कभी होगी। अभी बात इस घटना की। कपड़ों की दुकानें, जूतों की दुकानें, सीडी की दुकानें, हार्डवेयर की दुकानें, उपकरण रिपेयर करने की दुकानें और छोटे-भटूरे की दुकान भी प्रभावित हुईं।
नेहरू प्लेस में हॉकरों को दुकान लगाने के लिए या तो कोर्ट के स्टे ऑर्डर होना जरूरी है या फिर मानुषी संगठन द्वारा दिया गया प्रमाण पत्र। डीडीए ने नेहरु प्लेस मार्केट की शोभा बढ़ाने के लिए इन हॉकरों को हटाने का निर्णय लिया था। लेकिन साथ ही वादा भी किया था कि हॉकरों को वैकल्पिक जगह मुहैया करा दी जाएगी। आज से दो साल पहले अप्रैल 2008 में हॉकरों को हटा दिया। ना कोई नोटिस दिया ना हा कोई वैकल्पिक जगह। अस्सी के दशक से यहां दुकानदारी कर रहे हॉकरों के लिए यह बड़ा धक्का था। ऐसी स्थिति में गैरसरकारी संगठन मानुषी आगे आया। सभी हॉकरों ने मानुषी के बैनर तले अदालत का रुख किया।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले का संज्ञान लिया और डीडीए के नोटिस पर स्टे ऑर्डर दे दिया। साथ ही अदालत नें मार्किट की व्यस्तता को देखते हुए दुकान का दायरा भी निश्चित कर दिया। 4 बाई 6 में दुकानें फैलाने का सख्त आदेश दिया।
लेकिन, सभी हॉकरों का मानना है कि दुकान का यह साइज बहुत कम है। इस दायरे में दुकान लगाना और काम करना मुश्किल है। यही कारण है कि सभी हॉकर अदालत के इस आदेश को परे रख कर दुकान का आकार 14 से 16 फुट तक बढ़ा देते है। कारणवश मार्किट कईं बार घिच-पिच हो जाती है। कुछ हॉकर ऐसे हैं जिनके पास न तो अदालत के स्टे ऑर्डर है और न ही मानुषी संगठन का पहचान पत्र। इनकी संख्या तीन सौ से भी अधिक है।
जब दुकानों का आकार बढ़ जाता है और हॉकरों की संख्या बढ़ जाती है तो डीडीए को दखल
देनी पड़ती है। पुलिस और डीडीए कर्मचारी जत्थे में निकलते हैं और मार्किट का मुआयना करते हैं। जिसकी दुकान 4बाई6 से ज्यादा में फैली होता है उसके फट्टे जब्त कर लिए जाते है। अनधिकृत दुकानों को हटाया जाता है। छापे के समय सॉफ्टवेयर बेचने वाले लड़के और कार्टरेज रीफिल करने वाले दुकानदार कुछ देर के लिए छिप जाते है।
बस कहना यही है कि एशिया की सबसे बड़ी इस आईटी मार्किट का प्रबंध कैसे हो? मार्किट की शोभा भी एक मुद्दा है और यहां रोजी कमाने वाले हॉकर भी। हॉकरों को यहां से पूर्णरूप से हटा कर उन्हें जंगल का रास्ता दिखाना उचित नहीं। समाधान कुछ ऐसा हो ताकि रोजी भी बचे और मार्किट व्यवस्थित भी हो।
डीडीए द्वारा तैयार नक्शे पर नजर डालते डीडीए अधिकारी और हॉकर
Thursday, July 08, 2010
यमुना पार - 'टिंग्या' गोविंद और उसकी भैंस
गोविंद अपनी भैंस के साथ खेलता हुआ - यमुना पार। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा
गोविंद देश के उन तीन करोड़ बच्चों में से एक है जिन्होंने कभी स्कूल का दरवाजा नहीं देखा है। या फिर यह कहा जाए कि गोविंद देश के उन आठ करो़ड़ बच्चों में से एक है जो किसी कारणवश स्कूल नहीं जा पाते।
चार साल पहले बनारस के एक रिक्शा चालक के बेटे ने भारतीय प्रशासनिक सेवा में 48वां स्थान हासिल किया था। हाल ही में दिल्ली के एक रिक्शा चालक के बेटे ने भी आईआईटी की परीक्षा उत्तीर्ण की है। ऐसी घटनाएं प्रेरणा और उत्साह देती हैं। लेकिन गोविंद न तो आईएस ऑफिसर बन सकता है और न हा इंजीनियर। कारण यही है कि परिवार के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि वह अपने लाडले का किसी स्कूल में दाखिला करा सकें और सरकार में इतनी इच्छा शक्ति नहीं दिखती कि गोविंद की शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित हो जाए।
गोविंद की उम्र आठ साल है। वह अपने परिवार के साथ यमुना की तलहटी पर बनी झुग्गियों में रहता है। दादा के बीमार हो जाने के बाद परिवार के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी गोविंद के पिता के कंधों पर आ गईं है। पिता पेशे से खेतिहर मजदूर है। आमदनी दादा की दवाईयों और राशन-पानी जुटाने में खत्म हो जाती है। ऐसे में गोविंद की पढ़ाई के बारे में सोचना किसी चुनौती से कम नहीं है।
जब मैं गोविंद के चार खंभों पर टिके तिरपाल के घर पहुंचा तो मुझे उसकी भैंस के पास जाने से उतना ही डर महसूस हो रहा था जितना कि गोविंद को मेरे पास आने में। उसके लिए मैं शायद एक अजनबी से भी ज्यादा ही कुछ था। हम तो बचपन में मिट्टी के खिलौनो से खेलते थे। लेकिन गोविंद के पास तो सचमुच की भैंस है।
गोविंद की दादी कहती है, "दिन भर छोरा या तो मेरा पल्लू पकड़े रहता है या फिर भैंस की पूंछ"। आमतौर पर दिल्ली जैसे महानगर में बच्चे खेलने के लिए या तो किसी पार्क में जाते हैं या फिर किसी मॉल के फन वर्ल्ड में। लेकिन गोविंद के लिए तो यमुना का यही तट पार्क है और उसकी भैस उसके लिए फन वर्ल्ड। भैंस की पीठ रप चड़ना और सींगों के साथ छे़ड़ छा़ड़ किसी फन से कम है क्या? कल्पना कीजिए कि फन वर्ल्ड वाले बच्चों को अगर गोविंद की भैंस के साथ खेलने का मौका मिले और गोविंद को फन वर्ल्ड जाने का।
खैर कल्पना की दुनिया से बाहर सच्चाई यही है कि गोविंद बड़ा होकर अपने पिता की तरह ही मजदूरी करने को मजबूर होगा। पढ़ने की उम्र निकल रही है। शिक्षा का अधिकार धरा का धरा रह जाएगा और एक बच्चा फिर बेकार हो जाएगा।
गोविंद और उसके पीछे चारपाई पर बीमार दादा
कैमरे से बचने की कोशिश में
गोविंद देश के उन तीन करोड़ बच्चों में से एक है जिन्होंने कभी स्कूल का दरवाजा नहीं देखा है। या फिर यह कहा जाए कि गोविंद देश के उन आठ करो़ड़ बच्चों में से एक है जो किसी कारणवश स्कूल नहीं जा पाते।
चार साल पहले बनारस के एक रिक्शा चालक के बेटे ने भारतीय प्रशासनिक सेवा में 48वां स्थान हासिल किया था। हाल ही में दिल्ली के एक रिक्शा चालक के बेटे ने भी आईआईटी की परीक्षा उत्तीर्ण की है। ऐसी घटनाएं प्रेरणा और उत्साह देती हैं। लेकिन गोविंद न तो आईएस ऑफिसर बन सकता है और न हा इंजीनियर। कारण यही है कि परिवार के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि वह अपने लाडले का किसी स्कूल में दाखिला करा सकें और सरकार में इतनी इच्छा शक्ति नहीं दिखती कि गोविंद की शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित हो जाए।
गोविंद की उम्र आठ साल है। वह अपने परिवार के साथ यमुना की तलहटी पर बनी झुग्गियों में रहता है। दादा के बीमार हो जाने के बाद परिवार के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी गोविंद के पिता के कंधों पर आ गईं है। पिता पेशे से खेतिहर मजदूर है। आमदनी दादा की दवाईयों और राशन-पानी जुटाने में खत्म हो जाती है। ऐसे में गोविंद की पढ़ाई के बारे में सोचना किसी चुनौती से कम नहीं है।
जब मैं गोविंद के चार खंभों पर टिके तिरपाल के घर पहुंचा तो मुझे उसकी भैंस के पास जाने से उतना ही डर महसूस हो रहा था जितना कि गोविंद को मेरे पास आने में। उसके लिए मैं शायद एक अजनबी से भी ज्यादा ही कुछ था। हम तो बचपन में मिट्टी के खिलौनो से खेलते थे। लेकिन गोविंद के पास तो सचमुच की भैंस है।
गोविंद की दादी कहती है, "दिन भर छोरा या तो मेरा पल्लू पकड़े रहता है या फिर भैंस की पूंछ"। आमतौर पर दिल्ली जैसे महानगर में बच्चे खेलने के लिए या तो किसी पार्क में जाते हैं या फिर किसी मॉल के फन वर्ल्ड में। लेकिन गोविंद के लिए तो यमुना का यही तट पार्क है और उसकी भैस उसके लिए फन वर्ल्ड। भैंस की पीठ रप चड़ना और सींगों के साथ छे़ड़ छा़ड़ किसी फन से कम है क्या? कल्पना कीजिए कि फन वर्ल्ड वाले बच्चों को अगर गोविंद की भैंस के साथ खेलने का मौका मिले और गोविंद को फन वर्ल्ड जाने का।
खैर कल्पना की दुनिया से बाहर सच्चाई यही है कि गोविंद बड़ा होकर अपने पिता की तरह ही मजदूरी करने को मजबूर होगा। पढ़ने की उम्र निकल रही है। शिक्षा का अधिकार धरा का धरा रह जाएगा और एक बच्चा फिर बेकार हो जाएगा।
गोविंद और उसके पीछे चारपाई पर बीमार दादा
कैमरे से बचने की कोशिश में
Wednesday, July 07, 2010
एमसीडी और हॉकरों के बीच की मार्केट केमिस्ट्री
पालिका बाजार के बाहर कपड़े की मार्किट का जायजा लेता एमसीडी कर्मचारी। लेख और सभी फोटो :संदीप शर्मा
सिर के पीछे दोनों हाथ रख कर एमसीडी अधिकारियों की ओर देखते हुए दीपक कुमार कहता है,"एमसीडी वाले थे। यह साहब शेर की तरह आते हैं। जब आते हैं तो मार्किट में हड़कंप मच जाती है।" दीपक कुमार बिहार से है। वह पालिका बाजार के बाहर लगी कपड़ों की मार्किट में काम करता है। एमसीडी अधिकारी उसका कुछ सामान चालान के तौर पर बोरे में डाल कर ले गए। मालिक चालान भरेगा तो ही सामान वापिस मिलेगा।
एमसी़डी कर्मचारियों ने पालिका बाजार के बाहर कपड़ों की मार्किट में छापा मारा। अतिक्रमण और अनधिकृत दुकानों की जांच हुई। अनधिकृत दुकानों को तुरंत हटा दिया गया और जिन दुकानों में मालिक मौजूद नहीं थे उनका चालान काटा गया। ग्राहक हैरान परेशान खड़े थे। लेन-देन कुछ समय के लिए बंद हो गया। फिर भी दुकानदारों के बीच नो टेंशन का माहौल था। ऐसा इसलिए क्योंकि 300-400 रुपये का चालान भरने के बाद सामान वापस मिल जाएगा, फिर दो-तीन महीनों तक कोई छापा नहीं।
यह मार्किट सुबह से शाम तक ग्राहकों से ठस रहती है। सौ रुपये में टीशर्ट और डेढ़ सौ में जीन्स खरीदी जा सकती है। चीज फिट न बैठे तो वापिस की जा सकती है। लेकिन चीज कितनी टिकाऊ होगी इस बात की कोई गारेंटी नहीं। गारेंटी के बारे में किसी भी दुकानदार से पूछो तो एक ही जवाब मिलता है,"गारंटी तो आदमी की भी नहीं होती यह तो फिर भी कपड़ा है। और सौ-डेढ़ सौ की चीज में कौन गारंटी देता है।" अगर कोई ग्राहक फिर भी संतुष्ट न हो तो कहते हैं, "गारंटी की ज्याद ही पड़ी है तो शोरुम में क्यों नहीं जाते"। कपड़ों की इस मार्किट की एक ओर पालिका बाजार है और दूसरी ओर कनॉट प्लेस के शोरूम। पालिका बाजार और शोरूम से बाहर आने के बाद भी लोग यहां हाथ आजमाना नहीं भूलते।
राष्ट्रमंडल खेल नजदीक है इसलिए एमसीडी अधिकारी हॉकरों मार्किट में बार बार छापे मारे रहे हैं। ऐसे में लाईसेंस धारक तो नश्चिंत हैं लेकिन बिना लाईसेंस के दुकान चलाने वालों को रोज नए जुगाड़ भिड़ाने पड़ाते हैं । उन्हें एमसीडी कर्मचारियों के साथ सांठ-गांठ करनी पड़ती है। लेकिन अगर किसी की एमसीडी कर्मचारियों के साथ अच्छी कैमेस्ट्री तो जुगाड़ का भी जरुरत नहीं पड़ती। कर्मचारियों और हॉकरों के बीच की मार्किट केमिस्ट्री एक नया कंसेप्ट है।
जल्दी-जल्दी इकठ्ठा करने का आदेश
सिर के पीछे दोनों हाथ रख कर एमसीडी अधिकारियों की ओर देखते हुए दीपक कुमार कहता है,"एमसीडी वाले थे। यह साहब शेर की तरह आते हैं। जब आते हैं तो मार्किट में हड़कंप मच जाती है।" दीपक कुमार बिहार से है। वह पालिका बाजार के बाहर लगी कपड़ों की मार्किट में काम करता है। एमसीडी अधिकारी उसका कुछ सामान चालान के तौर पर बोरे में डाल कर ले गए। मालिक चालान भरेगा तो ही सामान वापिस मिलेगा।
एमसी़डी कर्मचारियों ने पालिका बाजार के बाहर कपड़ों की मार्किट में छापा मारा। अतिक्रमण और अनधिकृत दुकानों की जांच हुई। अनधिकृत दुकानों को तुरंत हटा दिया गया और जिन दुकानों में मालिक मौजूद नहीं थे उनका चालान काटा गया। ग्राहक हैरान परेशान खड़े थे। लेन-देन कुछ समय के लिए बंद हो गया। फिर भी दुकानदारों के बीच नो टेंशन का माहौल था। ऐसा इसलिए क्योंकि 300-400 रुपये का चालान भरने के बाद सामान वापस मिल जाएगा, फिर दो-तीन महीनों तक कोई छापा नहीं।
यह मार्किट सुबह से शाम तक ग्राहकों से ठस रहती है। सौ रुपये में टीशर्ट और डेढ़ सौ में जीन्स खरीदी जा सकती है। चीज फिट न बैठे तो वापिस की जा सकती है। लेकिन चीज कितनी टिकाऊ होगी इस बात की कोई गारेंटी नहीं। गारेंटी के बारे में किसी भी दुकानदार से पूछो तो एक ही जवाब मिलता है,"गारंटी तो आदमी की भी नहीं होती यह तो फिर भी कपड़ा है। और सौ-डेढ़ सौ की चीज में कौन गारंटी देता है।" अगर कोई ग्राहक फिर भी संतुष्ट न हो तो कहते हैं, "गारंटी की ज्याद ही पड़ी है तो शोरुम में क्यों नहीं जाते"। कपड़ों की इस मार्किट की एक ओर पालिका बाजार है और दूसरी ओर कनॉट प्लेस के शोरूम। पालिका बाजार और शोरूम से बाहर आने के बाद भी लोग यहां हाथ आजमाना नहीं भूलते।
राष्ट्रमंडल खेल नजदीक है इसलिए एमसीडी अधिकारी हॉकरों मार्किट में बार बार छापे मारे रहे हैं। ऐसे में लाईसेंस धारक तो नश्चिंत हैं लेकिन बिना लाईसेंस के दुकान चलाने वालों को रोज नए जुगाड़ भिड़ाने पड़ाते हैं । उन्हें एमसीडी कर्मचारियों के साथ सांठ-गांठ करनी पड़ती है। लेकिन अगर किसी की एमसीडी कर्मचारियों के साथ अच्छी कैमेस्ट्री तो जुगाड़ का भी जरुरत नहीं पड़ती। कर्मचारियों और हॉकरों के बीच की मार्किट केमिस्ट्री एक नया कंसेप्ट है।
जल्दी-जल्दी इकठ्ठा करने का आदेश
Sunday, July 04, 2010
पानी पर एक प्रदर्शनी - इंडिया हैबिटेट सेंटर
नितिन टांडा निर्देशक(फोटोग्रॉफी और डॉक्यूमेंट्री)- इंडिया हैबिटेट सेंटर।लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा
नदी, नालों, झरनों और समुद्र की बलखाती लहरों से पैदा हर एक हलचल को कैमरे में कैद कर लोगों के दिमाग में एक नई हलचल पैदा करना नितिन टांडा का जुनून है। नितिन टांडा पैशे से एक फोटोग्रॉफी निर्माता और निर्देशक है। दुनिया और कैमरे के बीच के रिश्तों को समझना इन्होंने अपने स्कूल टाइम से ही शुरू कर दिया था। प्रबंधन की पढ़ाई के बाद नितिन टांडा ने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में प्रबंधक के तौर पर नौकरी की। नौकरी के दौरान भी टांडा साहब के हाथों में कैमरा बराबर बना रहा। जब नौकरी और कैमरे के बीच तारतम्य न बन पाया तो नौकरी का चोला उतार कर बस कैमरे का ही दामन थाम लिया। नितिन टांडा अभी तक 20 से अधिक डॉक्युमेंट्री फिल्में भी बना चुके हैं। मुंबई इंटनेशनल फिल्म फेस्टिवल और युनेस्को फेस्टिवल ऑफ डॉक्युमेंट्री फिल्म्स् में इनकी ये कृतियां प्रदर्शित हो चुकी हैं।
नितिन टांडा इन दिनों आईआईटी दिल्ली के छात्रों को एनिमेशन फिल्म निर्माण पढ़ा रहे हैं।
अपने इसी कैशल के बूते इन दिनों वह दुनिया को पृथ्वी में व्यापत पंचमहाभूतों की अहमीयत समझाते फिर रहे हैं। नितिन टांडा ने दो वर्षों तक सिर्फ और सिर्फ पानी पर आधारित फोटोग्रॉफी की है। इस दौरान इन्होंने हिमालय की शिखर से लेकर समंदर की गहराई तक, भारत के देहात की सुनसान तलैया से लेकर अमेरिका के आलीशान बीचों तक पानी के जितने रंगों को समेटा है, अदभुत है।
अपने इस अथक प्रयास के कुछ नमूने इन्होंने पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य पर इंडिया हैबीटेट सेंटर में भी प्रदर्शित किए। प्रदर्शनी के बाद मैंने भी पानी के कुछ फोटो खींचने के कोशिश की।
अपने इसी कैशल के बूते इन दिनों वह दुनिया को पृथ्वी में व्यापत पंचमहाभूतों की अहमीयत समझाते फिर रहे हैं। नितिन टांडा ने दो वर्षों तक सिर्फ और सिर्फ पानी पर आधारित फोटोग्रॉफी की है। इस दौरान इन्होंने हिमालय की शिखर से लेकर समंदर की गहराई तक, भारत के देहात की सुनसान तलैया से लेकर अमेरिका के आलीशान बीचों तक पानी के जितने रंगों को समेटा है, अदभुत है।
अपने इस अथक प्रयास के कुछ नमूने इन्होंने पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य पर इंडिया हैबीटेट सेंटर में भी प्रदर्शित किए। प्रदर्शनी के बाद मैंने भी पानी के कुछ फोटो खींचने के कोशिश की।
नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी
नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी
नितिन टांडा की फोटोग्रॉफी
पानी पर मिज़ाजों के शहर की तस्वीरें...
लोधी गार्डन का तालाब
लोधी गार्डन में सूर्यास्त का दृश्य
लोधी गार्डन
लोधी गार्डन
नितिन टांडा की फोटो प्रदर्शनी की आनंद लेता दर्शक लोधी गार्डन
लोधी गार्डन
लोधी गार्डन लोधी गार्डन
लोधी गार्डन
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