Saturday, May 22, 2010

मशक्कत का मसीहा और ज़िंदगी की धूप-छाँव

बेरहम धूप में दो पल की आराम-तलबी लेख व सभी फोटो : संदीप शर्मा

कृष्ण जन्माष्टमी के बाद यह दूसरा मौका था जब मुझे नंदगांव का जिक्र सुनने को मिला। नंदगांव का इंदर साल के चार महीने अपने गांव में पेड़ों की ठंडी छांव में गाय, बैल और बकरियों के बीच गुजारता है और अप्रैल के आते-आते वह महानगर दिल्ली का रुख करता है। फिर गर्मी खत्म होने तक वह भाड़े के रिक्शे पर मटके की दुकान सजाकर दिल्ली की गली-गली में भटकता फिरता है।

दिल्ली की पसीनाछोड़ गर्मी से हम बेशक घर में दुबक कर रहने के लिए मजबूर हो जाए लेकिन इंदर के लिए तो घर से बाहर निकलने का यही माकूल होता है। वह कहता है, “अरे साब, गर्मी नहीं पड़ेगी तो धंधा कैसे चलेगा। अपना तो धंधा भी गर्मी बढ़ने के साथ ही बढ़ता है। जितनी ज्यादा गर्मी उतना ही चोखा धंधा”

इंदर के जीवन की इस कड़वी सच्चाई से शायद ही कोई वाकिफ हो कि जिन बाहों के सहारे वह मटके से लदे रिक्शे को एक गली से दूसरी गली में सरकाता है उन में से उसकी एक बाजू तो बिलकुल बेजान पड़ी है। उसकी यह बाजू तो बस सूखी हुई हड्डी की तरह है। इंदर कहता है, ”इस बाजू को तो मैं ठीक से हिली भी नहीं पाता हूं फिर इसके सहारे कोई चीज उठाना तो दूर की बात है”

ज़रा सोचिए, एक बाजु के दम पर यह शख्स दक्षिण दिल्ली की तंग गलियों में गगरी से लदा रिक्शा कैसे धकेलता होगा। और अगर इस दौरान बीच में कोई गाड़ी वगैरह टपक जाए तो रिक्शे को किनारे लगाने की हड़बड़ाहट और ऊपर से उस गाड़ी वाले के झिड़क को यह ना जाने कैसे सहन करता होगा। गाड़ी वाला तो अनाप-शनाप कह कर चल निकलता होगा लेकिन उसकी इस असहाय पीड़ा को शायद ही कोई महसूस कर पाता होगा। और फिर इंदर शरीर की इस कमजोरी का दिल्ली के हर गली-मोहल्ले और सड़क –चौराहे पर ढिंडोरा पीटते हुए भी तो नहीं फिर सकता।आखिर वह भी तो एक आम इंसान है और दिल उसके पास भी है। अपनी कमजोरी का हर किसी के सामने जिक्र करने से उसे भी झुंझलाहट महसूस होती होगी। ये दिक्कतें पेश आने के बावजूद भी राहत भरी बात यह है की इंदर को अपने इस असहायपन के लिए सरकार का प्रमाण पत्र मिला है जिससे उसका बस और रेल से अना जाना मुफ्त हो जाता है। इंदर कहता है, “आने-जाने का कोई किराया-भाड़ा नहीं लगता है इसलिए महीने मे दो दफा घर जरूर जाता हूँ”

जब मैंने इंदर से पूछा कि एसी और फ्रीज के जमाने में मटके की क्या खैर तो उसने बड़े रोचक ढंग से इसका जबाब दिया, “अंग्रेजी के आने से हमने देसी पीनी छोड़ नहीं दी है साब"। इदंर हर रोज 10-15 मटके बेचता है। मटके की कीमत उसके आकार पर निर्भर करती है। सबसे छोटा मटका 30 रूपये और बड़ा 60 रूपये तक बिकता है। कुल मिलीकर इंदर एक महीने में करीब 6-7 हजार रुपये कमा लेता है। अपनी आमदनी के बारे में इंदर कहता है, “कमाई तो उतनी ही होती है जितनी भागदौड़ करता हूं, लेकिन गुजारे लायक तो फिर भी बन ही जाता है”

वह जब गांव में नहीं होता तो घर का सारा काम उसकी पत्नी और बच्चे संभाल लेते हैं। फिलहाल दिल्ली में गर्मी की जवानी के दो-तीन महीने अभी बाकी है और इस दौरान नंद के इस लाल को अपने मटके की ठंडक दिल्ली की हर गली-मोहल्ले तक पहुंचानी है।

दक्षिण दिल्ली की गली का एक दृश्य:


दक्षिण दिल्ली की तंग गली मे गगरी से लादे रिक्शे को किनारे लगता 'इन्दर '

बस एक-दो यहाँ बिक जाये तो फिर चलता बनूँ

'पहले बीड़ी तो जला लूं '

बीड़ी की चुस्की के साथ सोच का अम्बार

'मैं अभी आपको अपना बस पास दिखाता हूँ साब '

'ये रहा मेरा बस पास '

8 comments:

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

मुझे यह कहानी काफी पसंद आई। मार्मिक, मानवीय और मूल्यवान।

साथ ही साथ यह भी कहूंगा कि इसके मानवीय पक्ष को तुमने कम उभारा है। इंदर के कष्टों में महानगरीय जीवन और रुकावटों का लंबा दौर है। पानी ठंडा रहने वाले चमत्कारी घड़ों यानी मटकियों को झुलसाती गर्मी में घिसटकर घूमकर बेचते इस इंसान की काया अपनी हैसियत से ज्यादा खप रही है। यह हम महानगर में रहने वालों पर इंदर का एक कर्ज है। उस जैसे व्यक्ति और ये मटकियां तो कुछ ही वर्षों में लुप्त हो जाएगी। रह जाएंगे तो बस बड़े-बड़े सीमेंट के ढांचे और अपमानित होते गरीब। तब इस ई-अखबार के जरिए हमें गुजरे जमाने की नजर करने का मौका मिलेगा।

आशा है कि तुम अपने काम की जिम्मेदारी और आकार को समझते हुए, इसमें और संजीदगी और खरापन लाओगे।

हिमांशु शेखर said...

Well written. There are so many Inder's in the city of Power and Politics but policymakers have no time to even think about them but atleast you can wtite about them. I hope, one day any one will read and do something for the people like Inder.
Keep it up.

Parveen Kr Dogra said...

less word but more effective communication.. i like the way u are writing.....great..
keep this process going n going..
love.

annapurna said...

post achhi lagi par kai sawaal bhi chod gayi,
inder ke baare me or janna chahti hu, nandgaon se aaye, kaise dilli me base, kaam ke alawa kya hota hai unki duniya me?
jab matake ni bikte fir kya karte hain wo?
unka pariwaar?
inder ke sapne, matke se duniya ko thandak dete inder ke dil me kisi ki prati koi aag hai? kisi se koi sikayat?

Mediabakar said...

ek shakhsh ki zindagi ko aapne matkon ke barabar hi aank kar kahani ki itishri kar di hai.Kya garmiyon ke baad matke ki tarah hi uski sthiti bhukho-pyason jaisi ho jati hai? agar nahi to guy-bakariyon aur darakhton se ghire gaon me rahne wala yeh shakhsh 5-6 hazar ke liye 45 degree temp. me kyon galion ki khak chanta hai? kya do-chhar mahinon ki kamai me saal bhar bivi-bachhon ko paal leta hai? mera to yehi manna hai ki shahar mahaj ek dur ko dhol hai, jaha amdani athanni aur kharcha..... lihaza mere bhai matko ko to zinda rakho lekin gaon ki mauz-masti se is bedard shahar ki tulna na karo.
RAJESH RANJAN

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

I saw Inder today in Jia Sarai. Exactly as you described in the pictures, with the BIDI... thinking.

अविनाश वाचस्पति said...
This comment has been removed by the author.
अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 2 सितम्‍बर 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट मशक्‍कत का मसीहा शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।

सैर कर ब्‍लॉगर नुक्‍कड़ की। समूचा मोहल्‍ला बसता है नुक्‍कड़ पर।