Friday, June 25, 2010

दिल्ली विश्वविधालय - रामजस कॉलेज में आनंद

दिल्ली विश्वविधालय से दाखिला लेने के बाद वापस आता आनंद । लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

नब्बे फीसदी अंक बटोरने वाले को जब गमगीन देखता हूं तो गांव के दिन याद आते हैं। बारहवीं में पचासा मारने पर भी पूरे बेड़े में यानी मेरे पूरे मोहल्ले में लड्डू बांटे थे। वह पूरी रात तो बस जश्न फूंकने में निकल गईं थी। अब मैं गांव में नहीं हूं। दिल्ली में हूं। इस जैसे महानगर में पढ़ने-पढ़ाने में कट ऑफ सूची की परंपरा है। अच्छे अंक तो थोड़ा अच्छा कॉलेज। बहुत ही बढ़िया नंबर तो थोड़ा और अच्छा कॉलेज। बस इतना ही। कट ऑफ की इसी परंपरा को और जानने के लिए दिल्ली विश्वविधालय यानी डीयू जाना हुआ।

मिरांडा, हिंदू और श्रीराम की ऐतिहासिक गलियों में कट ऑफ के लिए दूर धूल उड़ती देखी। इस पर एक अलग कहानी लिखूंगा। फिलहाल, वापसी में विश्वविधालय मैट्रो स्टेशन पर सुस्ता रहा था कि नज़र एक व्यक्तित्व पर जा जमी। वामन कद, पीठ पर टंगा स्लेटी रंग का बैग, औरों से कदम मिलाता, मगर साथ ही अपनी राह बनाने का संघर्ष करता। ये सब आकर्षित करने वाला था। लाजवाब। सुस्तीमय तंद्रा टूटी तो इस व्यक्तित्व की कट ऑफ हिस्ट्री जानने के लिए उसका पीछा करना शुरू किया। काफी वक्त लग रहा था, मगर काफी कुछ जान भी रहा था।

हमारे इस व्यक्तित्व का नाम आनंद शर्मा है। फरीदाबाद का रहने वाला है। 86 फीसदी अंकों के साथ बारहवीं की है। श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में दखिला नहीं मिला। रामजस से ही संतोष करना पड़ा। दो आंसू बहाने के लिए साथ में न मम्मी, न पापा और न ही मित्र। फॉर्म भरने से लेकर फीस जमा कराने तक, सारा काम खुद ही सटकाना पड़ा। औरों के मददगार साथ थे, लेकिन आनंद की कहानी उनसे हट कर है।

एक दिन जब आनंद की बुआ घर आईं तो उसके पिता से एक सवाल कर बैठी, "आनंद के साथ अब भी जाना पड़ता है या फिर अब यह अकेला बाहर चला जाता है"?

गलती उम्र की थी। आनंद कद से बेशक बच्चा नजर आता था लेकिन उम्र ऐसी बातों को समझने की हो चली थी । इसीलिए बुआ के इस सवाल से झेंप सा गया। आनंद कहता है, "उस दिन से ठान ली कि अब घर से बाहर अकेले ही निकलूंगा। हिम्मत बांधना शुरु की तो धीरे-धीरे डर खत्म होता गया। "

एक तो दिल्ली की गर्मी, दूसरा दाखिले के लिए चक्कर पर चक्कर, ऐसे में पसीने से तर-बतर होना लाज़मी है। आनंद के लिए मशक्कत थोड़ी और भी ज्यादा। औरों के दो कदम और उसके.... चार कदम । फरीदाबाद से कश्मीरी गेट वॉया बस, वहां से विश्वविधालय मेट्रो, विश्वविधालय मेट्रो स्टेशन से कॉलेज कैंपस ... बाख़ुदा पैदल। आनंद कहता है कि बस के पायदान पर बगैर सहारे चढ़ना मुश्किल होता है। मैट्रो में बाकी तो सब ठीक है, बस कूपन रीचार्ज में थोड़ा झंझट रहता है। मैट्रो की गरारी दार सीढ़ियों पर आनंद एक बार धक्का खा गया था। बस उस दिन के बाद फिर सवार होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

खैर, फरीदाबाद से विश्वविधालय तक का रास्ता नापे आनंद को सिर्फ तीन दिन हुए हैं। हॉस्टल न मिला तो यह उसके लिए रोज़ का संघर्ष बन जाएगा।

डीयू में दाखिले का दौर जोरों पर है। दाखिला पाने की होड़ में आनंद भी शामिल है। पहली कट ऑफ लिस्ट जारी हो चुकी है। उसमें उसका भी नाम था। नामी-गिरामी कॉलेजों में सामान्य वर्ग की कट ऑफ 90 प्रतिशत के ऊपर ही अटकी है। कक्षाओं की शुरुआत 15 जुलाई से होनी है। फैशन भी कैंपस का एक अहम हिस्सा है। आनंद कैंपस का हिस्सा जरूर है, लेकिन फैशन का शायद ही। राहगीरों की नजरें उसकी कद काठी से नहीं हटती। इनकी टकटकी और इक्के-दुक्के की ओए-ओए अखरती जरुर है, लेकिन अब उन सब चीजों की उसे आदत हो गई है।

आनंद की चाह आज कल उसे काफी बेचैन करती है। चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने के लिए बारहवीं के बाद दो साल का ड्रॉप ले लिया था। लक्ष्मीनगर में कुछ समय सीए की कोचिंग भी ली लेकिन इसके इम्तिहान में पार नहीं हो सका। वह कहता है, "आज कल मुझे 'हम दिल दे चुके सनम फिल्म का गाना', तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलती रही, मुझको सज़ा दी प्यार की , ऐसा क्या गुनाह किया जो लुट गए और 'ओम शांति ओम' फिल्म का गाना छन से जो टूटे कोई सपना.... सुनने अच्छे लगते है।

आनंद सपना देखने से अब कतराता है। रामजस कॉलेज में दाखिला मिल चुका है लेकिन चेहरे पर से खुशी के भाव नदारद है। महानगर की तनावपूर्ण जीवन शैली से शायद उसका यह पहला ही वास्ता है।

चुंधियाती धूप में माथे की सलवटों से पसीना पोछते हुए आनंद कहता है,"अब तो घर पर ठहरने का मन भी नहीं होता है। घर पर आने वाले लोग जब सीए का परिणाम पूछते हैं तो अखरता है। बस घर से बाहर रहने के बहाने ढूंढता हूं"। आनंद विश्वविधालय मैट्रो स्टेशन के बाहर तीन घंटे बैठा रहा। घर जाने के लिए अभी भी काफी समय था इसलिए केंद्रीय सचिवालय तक मुझे छोड़ने चल दिया।

थोड़ी पीड़ा के साथ, दबी आवाज में वह मुझसे कुछ कह रहा था। मगर, मेरा ध्यान कहीं और था। आंनद के बिलकुल पीछे बैठी दो लड़कियां इशारों में सारी बातें कर रही थीं। हम भारत के लोग भी न जाने कैसे हैं, जब भी कुछ सोचना हो, या मन में चित्रित करना हो तो फिल्मों के पोस्टर अंदरुनी आंखों में स्लाइडशो की तरह उतरने लगते हैं। इस पल ब्लैक फिल्म का स्लाइडशो चलने लगा। ब्लैक से रानी मुखर्जी का किरदार उभरा। इन दो सौम्य लड़कियों में भी बोल-सुन पाने की शक्ति नहीं थी। दोनों ही आनंद की तरह भीड़ से अलग मैट्रो स्टेशन के बाहर एंकात में एक ओर बैठ गईं। समझदारों की नजरों से बचने के लिए। टकटकी से बचने के लिए नई जगह तलाशनी पड़ती है।

मन में यही सब कुछ चल रहा था कि आनंद अपने शब्दों को दोहराने लगा, "घर में रहते हुए दो बार तो इतना परेशान हो गया था कि आत्महत्या कर बैठता। जान दे बैठता। खुद को समझाना बड़ा मुश्किल रहा। "

स्टेशन के बाहर जब मैं पेड़ की छाव में सुस्ता रहा था तभी मेरी नज़र पहली दफा आनंद पर पड़ी थी। वह घर जा रहा था। मैंने उसे गूढ़ पाया। मन न माना तो उसके पीछे चल दिया। करीब कैसे जाऊं और बात कैसे शुरू करूं इसी दुविधा में था। दरअसल ऐसे मौकों पर एक विशेष किस्म की संजीदगी की जरूरत होती है। संवेदनशीलता की दरकार होती है।

स्टेशन के बाहर लोगों के हुजूम से बचता वह स्टेशन के पीछे यहीं आ बैठा। उसके नजदीक जाने और बात करने के लिए मेरे मन की हां-ना लगभग दो घंटों तक चली। उसकी झिझक तोड़ने में 10-15 मिनट लगे। कुछ बातों के बाद आनंद ने कहा, "आपने पहले नहीं सोचा होगा कि मैं इतनी बातें करता होउंगा"। मेरे मीडिया से जुड़े होने का जब उसे एहसास हुआ तो बोला, "पहले पता होता शायद आपसे बात ही नहीं करता। " अगर मिजाज़ों के शहर को छोड़ दें, तो आनंद को मीडिया से जुड़े लोग पसंद नहीं।

इस विशेष चेहरे से जान-पहचान की मेरी कोशिश कामयाब ही रही। दोनों में दोस्ती हो गई। वह मुझे छोड़ने केंद्रीय सचिवालय मैट्रो स्टेशन तक आया। संभवतः उससे मिलने फिर डीयू जाऊंगा। साक्षात्कार हो गया, अगली बार सिर्फ हालचाल जानने।

विश्वविधालय मैट्रो स्टेशन के पीछे का एकांत

करियर...... ?

सामने पूरी दुनिया पड़ी है
मेट्रो के सफ़र से पहले हाथ मुंह धोया, धूल भरी आंधी जो चली थी

घर का पानी, तपता सूरज
एमिटी के विज्ञापन से होकर जाती राह

एक सफ़र और ...

समाज कैसा है, कैसा हो ..?

एक बार के लिये अलविदा ...

6 comments:

Parveen Kr Dogra said...

आनंद के कदम जरुर छोटे हैं मगर उतने ही मजबूत दिखते हैं. जो बढ़ रहे हैं आगे, बिने रुके, बिना झुके. साथ ही हमें भी सिखा रहा है कि जिंदगी कभी ना रुकने का नाम है, और मेहनत करने वालों की कभी हार भी कहाँ होती है.
संदीप आपका यह लेख अलग है, बेहतर है, और संवेदनाओं को छूने वाला है.
धन्यवाद् इस लेख के लिए

Ganesh Kumar Mishra said...

दिलवालों की दिल्ली में अपने छोटे लेकिन मजबूत क़दमों से शहर ही नहीं बल्कि दुनिया नापने का जज्बा दिखाने वाले आनंद ने सभी के लिए एक नजीर पेश की है...दिल्ली शहर की अलग-अलग तस्वीरों को बयां करती फोटो गैलरी वाकई दिलचस्प है...संदीप जी आपका लेखन और संग्रह प्रशंसनीय है...
कभी मेरे ब्लॉग पर भी आईए...स्वागत है आपका...

annapurna sinha said...

bheed se alag.... anand bhi or aapka lekh bhi...
DU me chal rahi dakhile ki dod me itna alag kuch padne ko milega kabhi ni laga tha.. mujhe apka ye post behad pasand aaya..

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

individual exraordinare..

Harshvardhan said...

aapka blog kaafi achcha laga..... lekhan shelly achchi hai. dil ko jeet liya..........likhte rahiye.... gajendra sareekhe dosto ke sath bne rahiye....

sukh sagar singh bhati said...

sandeep anna kya yaaaar!!!!socha kya hai.............yaar har bar ek bade blast k sath ate ho......gooood gooood....bahut acha laga....

is alag si shaili ko banaye rakhna.....u r unique.....baki jo bhi kahe....i dont care.....but aap sabse alag likhte ho...

best of hard work.


sukh sagar singh bhati
www.discussiondarbar.blogspot.com