Thursday, June 17, 2010

एक तो मुफ़लिसी मार गई और दूसरे राष्ट्रमंडल खेल

नसीब में लिखा था सड़क का किनारा वो भी अब छूटा। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा

पहले इन मजदूर परिवारों ने एमसीडी से सारा सामान ठिकानें पर लगाने के लिए चार दिन की मोहलत मांगी । नहीं मिली। फिर इन्होंने दोपहरी खाने के लिए बस बीस मिनट का समय मांगा। एमसीडी के पास वह भी नहीं था। एमसीडी कर्मचारियों ने पुलिस के घेरे में जेसीबी मशीन की ब्लेड से 15 साल पहले बनी इन झोपड़ियों को बस 15 मिनट के अंदर धूल में तब्दील कर दिया।
बेरुखी की हद तो ये कर्मचारी पहले ही पार कर चुके थे। बगल वाले पार्क में पीने के पानी की सप्लाई एक सप्ताह पहले सिर्फ इसलिए बंद कर दी गई थी ताकि ये गरीब अपना बोरिया-बिस्तर समेटने को मजबूर हो जाते। जिस गंदे पानी से पार्क की सिंचाई की जाती है मजबूरन उस पानी का इस्तेमाल इन्हें खाने बनाने से लेकर पीने तक करना पड़ा।

यह घटना मयूर विहार फेज-2 की है। लेकिन दिल्ली के सौन्दर्यकरण अभियान में पिसते गरीबों की आह तो सड़क के किनारे किनारे पर सुनी जा सकती है।

इन मजदूर परिवारों का पक्ष लेकर मैं अतिक्रमण की वकालत नहीं कर रहा हूं। मैं तो मुफलिसों के साथ बरती जाने वाली ज्यादतियों का एक अंश मात्र पेश करने की कोशिश कर रहा हूं।

राष्ट्रमंडल खेलों के लिए सजती-धजती दिल्ली का विरोध तो ये गरीब परिवार भी नहीं कर रहे हैं। रिक्शा चालक नरेश दिवाकर अलीगड़ का रहने वाला है। 15 साल पहले उसने अपने परिवार के साथ यहां डेरा जमाया था। आज उसकी आंखों के सामने यह डेरा उजड़ गया। जब बरदाश्त नहीं हुआ तो इन आंखों को देसी पउवे में डुबो दिया फिर दूर सड़क के किनारे में बैठ कर गालियां फड़फ़ड़ाता रहा। "*****मां*****भे*******गांव में होते तो एक एक पर तमंचा चढ़ा देते....। अरे झोपड़ियां तो एक दिन गिरनी थी । ..... सालों....ने खाना कत नहीं खाने दिया"।

रामअवतार सिंह फरुखाबाद का रहने वाला है। वह लोक निर्माण विभाग के साथ मजदूरी करता है। यहां सात मजदूर परिवारों के बीच उसका भी एक परिवार है। जब एमसीडी वाले पहुंचे थे तो रामअवतार की बीवी उसे और सात साल के बेटे प्रिंस को खाना परोस रही थी। कतार में उनका घर अंतिम था इसलिए जैसे-तैसे खाना निगलने का समय उनके परिवार को मिल गया। बस्ती के बगल में पुलिस चौकी है। रामअवतार कहता है कि यहां के वर्दी वालों के साथ उसकी अच्छी जमती थी। लेकिन इन वर्दी वालों की घेरेबंदी में जब उसके घर पर जेसीबी चली तो वह तो बस ताकते रह गया। रिक्शे पर सामान लादते हुए थोड़ा रुक कर रामअवतार कहता है, "वर्दी वाले किसी के सगे नहीं होते। महीने में दो दो बार मटन चिकन खिलाता था। दोपहर के समय चौकी के बाहर सफेदे की छांव में ताश पीटना तो हमारा रोज का काम था। गरीबों का कोई दोस्त नहीं हो सकता"। रामअवतार यमुना किनारे डेरा डालने की सोच रहा है। डेरे के लिए जगह पाने का वहां एक अलग संघर्ष है।

बदायूं की आशा को बस्ती के लोग झांसी की रानी कहा करते हैं। मिजाज़ से तेज तर्रार जो है। एक तो आशा का पति घर पर नहीं था, दूसरा जेसीबी की ब्लेड ने एक ओर से झोपड़ियों को कतरना शुरू कर दिया था। संभालने को तीन तीन बच्चे भी थे। आशा करती भी तो क्या? और जाती भी तो कहाँ साड़ी कसी और कर दिया शुरू सामान को किनारे लगाना। उसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी मालूम है और शीला दीक्षित का भी। थोड़ी सी देर के लिए जब मैंने बात करने के लिए रोका तो वह इन्हीं पर अपना गुस्सा उतार रही थी।

जेसीबी अब हट चुकी है। वर्दी वाले अपनी फटफटी में निकल चुके है। आशियानें उजाड़ है। रात कहां कटेगी यह ना आशा जानती है और न ही रामअवतार। पहले सड़क पर तो थे अब तो कहीं के नहीं रहे। कल से पेट के लिए भी संघर्ष करना है और सिर छिपाने के लिए भी। राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अभी तीन महीने बाकी है। तब तक सड़क का किनारा तो आशियाना नहीं बन सकता। गांव से निकल कर सालों गुजर गए हैं। ऐसे में विकल्प गांव वापसी का भी धुंधला पड़ गया है।

जेसीबी लगने से ठीक पहले

बेघर और बेसहारा, छूट गया अब सड़क का वो किनारा

लाठी बल और पुलिस बल दोनों

जेसीबी दृश्य -1
जेसीबी दृश्य-2

जेसीबी दृश्य-३

रामावतार अपने उजड़ते घर को ताकता हुआ

बस्ती की रानी झांसी 'आशा '

तेज तर्रार, गर्म मिजाज पर बेबस
"मुझे भी आती है राजनीति" आशा
मलबे में अटे सामान को निकलती एक अकेली जान

आखिर में ........

7 comments:

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

अब तक का तुम्हारा श्रेष्ठ लेख। ठोस और सार्थक।

annapurna sinha said...

photos dekh ke lagta hai aapne sab kuch hote dekha.. fir is par apni mazboori likh dali.. jaisa apko likhte hue mahsoos hua hoga mujhe padte hue laga.. aankhon ke samne sab hota hai lekin.. "HUM KUCH NI KAR SAKTE"..

Vikram Singh Parmar said...

MCD is doing the right thing in a wrong way. So if you say from 15 yrs they used to live there so its there place.... NO. they just need to show little human in them.

Agar koi garib ho yaa amir dono ka haq nahi hai ki public property ko apna bana le. So if they have done wrong they will have to pay for it. its not govt job to find them a place to live they will have to find a place which is legal and pay for it.

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

lo lo ...
Viksa is talking law here...

sukh sagar singh bhati said...

firstly........post bahut acha...

secondly govt. and log dono hi responsible hai.......aur aap sabhi ko pata hai kaise!!!


sukh sagar singh bhati
http://discussiondarbar.blogspot.com

Suman Thakur said...

sandeep who said to you that these guys are living here for the last fifteen years. i've been in phase 2 for the past 2 years and they had come here in 2008. Advocating for these bloody creepers is utterly a nonsense thing. they come to delhi, find shelter anywhere they got space and start spoiling the area. if administration turns blind eye towards them, overnight they create a new slum. how could you compare them with law abiding citizens. writing for poor people is good but writing for those who wants to remain poor, by eating the state resources and a is not justifiable. you need to come out of your soft approach for these people.

Sandeep Vizanta said...

in your eyes i may be wrong factully but not those people who used to live here.

as far as your concern for the so called abiding citizen is concerned...it just a product of capitalistic society. where every thing is treated as a market product with its market values.

but how can poor people have that value? they must be stay out not just of the market but olso from the eye of the so called abiding citizens.
they people come to delhi not for hangout but for employment. just like us.