Friday, September 03, 2010

बाराखंभा रोड़ - जूतेसाजों का शिक्षक दिवस

जूता साज अमित। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा।
दुनिया की इस पाठशाला में परिस्थितियां इनकी गुरु हैं। शिक्षक दिवस इन परिस्थितियों से रूबरू होकर ही मनाया जाएगा। एक हाथ नें बूट-पॉलिश और दूसरे में ब्रश। बूट-पॉलिश करा लो बूट-पॉलिश करा लो के नारों के साथ ही मनाया जाएगा बाराखंभा मेट्रो स्टेशन में इस बार का शिक्षक दिवस। आप भी सआदर आमंत्रित हैं। सुबह आठ से सांय पांच बजे तक।

"शू-शाइन करा लो सर, चारों तरफ से कर देंगे" ये ऐसे शब्द हैं जो 13 साल के अमित को सुबह सात बजे से शाम के पांच बजे तक बोलते रहना होता है। इन्हीं शब्दों पर इसकी रोज की कमाई निर्भर है। शिवा लाल क्योंकि उम्र में सबसे बड़ा है और ग्राहकों को आकर्षित करने में माहिर है इसलिए सबसे अच्छा धंधा भी वही करता है।


बाराखंभा रोड़ मैट्रो स्टेशन के गेट नंबर-6 से बाहर आने वाला हर एक आदमी इनका निशाना होता है। नजर बस पांव पर टिकी रहती है। आपके जूतों पर लगी थोड़ी सी धूल इन्हें कुछ कहने का मौका देती है। अगर आप पॉलिश कराने किसी एक के पास खड़े हो जाते हैं तो साथ वाला आपको कहेगा,"अरे सर मेरे से करा लो ना, मैं इससे अच्छी पॉलिश करता हूं। यह तो बच्चा है। मेरे से तो बड़े-बड़े लोग जूतों में पॉलिश करवाते हैं"। बाजार में भी तो ऐसी ही प्रतिस्पर्धा का भाव रहता है। पब्लिक-रिलेशन तो करना पड़ता है।

ये सभी बच्चे राजस्थान के अजमेर जिले से हैं। मोची का काम इनका पारिवारिक पेशा है। रहना रोहिणी में होता है और दुकान जमाने की जगह बाराखंभा रोड़ मैट्रो स्टेशन है। बाराखंभा की बहुमंजिली इमारतों के बीच यहां के कार्पोरेट माहौल में मोची का काम अच्छे से निकल जाता है। रोजाना जूतों की पॉलिश पर 5-10 रुपये खर्च करना कार्पोरेट कर्मचारियों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। एक्सिस बैंक में काम करने वाले सुधीर कहते हैं,"रोज जूतों पर पांच रुपये खर्चकरता हूं...सूटिड-बूटिड रहना तो हमारे व्यवसाय की जरूरत है"।. इन्हीं शब्दों में इन नन्हें जूतेसाजों का कारोबार टिका है।

मैट्रो के भाड़े में एक दिन में लगभग 44 रुपये लग जाते हैं। अमित के चाचा का लड़का सुरेंद्र कहता है,"44 रुपयों में आना जाना होता है। 10 रुपये का कुछ खा लेता हू्ं और 120-130 रुपये की रोज की बचत हो जाती है"। इस हिसाब से देखा जाय तो एक बच्चा महीनें भर में करीब 3000-3500 रुपये कमा लेता है। स्वत्रंत भारत में होना तो इसके विपरीत चाहिए था। तीन-चार हजार रुपये अगर इनके भविष्य पर खर्च किए जाते तो कुछ बात बनती।

ये सभी कमाऊ पूत है इसलिए इनके मां-बाप को शायद इनके स्कूल न जाने का ज्यादा अफसोस भी न होगा। अमित की बूआ का लड़का शिवालाल कहता है, "पिताजी अजमेर में ही जूतासाज है। हर महीनें पैसा भेजता हूं। स्कूल भेजने का माहौल न गांव में है और ना घर पर"। ऐसे में शिक्षक दिवस के इनके लिए क्या नायनें हो सकते हैं, समझा जा सकता है।

बाराखंभा मैट्रो स्टेशन के बाहर का यह दृश्य निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन की याद भी दिलाता। मेल फिल्म के एक दृश्य से भी खाता है। फिल्म 'बागवां'। फिल्म के शुरु में ही सलमान खान नन्हें से मोची की भूमिका में अमिताभ बच्चन के जूतों में पॉलिश कर रहा होता है। अमिताभ बच्चन बच्चे को देखकर भावनात्मक हो उठता है और बच्चे को स्कूल जाने के लिए पूछता है।

इन बच्चों को फिल्में देखने का शौक है और फिल्में भी खूब देखते हैं। लेकिन किसी ने बागवां नहीं देखी। घर पर केबल कनेक्शन है। डिशुम-डिशुम वाली फिल्में देखना ज्यादा भाती है। जाने क्यों बचपन में फाइटिंग औैर हौरॉर फिल्में ही अच्छी लगती हैं। खैर अब तो वीडियो गेम का जमाना है। बचपन का साहित्य दम तोड़ता नजर रहा है। लेकिन इन लोगों ने ना कभी वीडियो गेम देखी है और न ही बाल साहित्य। पाढाई में रुचि की बारे में पूछा तो सब चुपचाप एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। मानों मैंने कुछ गुस्ताखी कर दी हो।

खैर, इन्हें हिंदी गाने सुनने का भी शौक है। मुझसे झूम बराबर झूम गाने बजाने की फर्माइश की लेकिन मेरे मोबाइल में यह गाना नहीं था। राजस्थानी बजाया तो सब लोग उस पर ही झूम उठे। किसी अजनबी के मोबाइल अपना लोकल संगीत सुनना मेरे लिए भी शायद इतनी ही खुशी देने वाला होता।

खुशी इस बात की है कि इन बच्चों की बचपन की हंसी अभी बरकरार है। काम के साथ साथ हंसी-मजाक और मौज-मस्ती का अब कंसेप्ट काहां बचा है। मौज-मस्ती के बीच दुनियादारी का जो कौशल ये सीख रहे है वह ताउम्र इनके पेट की आग शांत करने के लिए काफी है।

पर कुछ सालों में अक्ल की दाढ़ ने तो जमना है,बचपन की हंसी में तब बिखरावट आनी शुरु हो जाएगी। समय के साथ जूतों को घिसने का कौशल तो जरूर निखरेगा लेकिन न पढ़ पाने का मलाल तो तब भी रहेगा।

बड़ा होकर क्या बनना है यह प्रश्न बच्चों से तब पूछा जाता है जब उसके दूध के दांत भी नहीं निकले होते। बड़ा होकर अगर कुछ बन गया तो कितना कमाता है? बड़ा प्रश्न बन जाता है। राजस्थान की इन मासूम जिंदगियों से बड़े होकर कुछ बनने का प्रश्न शायद ही कोई करेगा । कितना कमाया यह प्रश्न तो बापू रोज शाम को पूछता है।

काम भी करते हैं और सबकी सुनते भी हैं।
सरदार जी का रोज का रुटीन।
हंसी के कुछ पल


अमित का छोटा भाई
बाराखंभारोड़ बस स्टॉप पर भी काम बराबर रहता है।

1 comment:

Parveen Kr Dogra said...

yet another nice piece of writing. nicely portrayed the life of these unpriveleged children....
good work, keep exploring your potential and let others see the ground realities of "india" :)