Thursday, September 09, 2010

गुलमोहर पार्क की पत्रकार कौलोनी

गुलमोहर पार्क-पत्रकार कौलोनी का प्रवेश द्वार। लेख और सभी फोटो : संदीप शर्मा
गुलमोहर हॉल और गुलमोहर पार्क में एक रिश्ता है। रिश्ता पत्रकारिता का। जहां गुलमोहर हॉल पत्रकारीय सम्मेलनों की साक्षी है वहीं गलमोहर पार्क पत्रकारों के आशियानों का साक्षी है। साक्षत्कार तो इनका एक किस्म की बेबसी से भी होता है। इंडिया हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर हॉल में सप्ताह दो सप्ताह में यह गूंज जरूर सुनाई देती है,"हम मार्केट के आगे बेबस है हम पत्रकारिता नहीं जॉब कर रहे हैं। गुलमोहर पार्क की पत्रकार कौलोनी की बात करें तो वहां पत्रकार कम और कार्पोरेट कर्मी ज्यादा हो चले हैं।

40 साल पहले की बात करें तो दृश्य कुछ और था। हॉज खास के पौश इलाके में बसाई गई पत्रकार कौलोनी बस अब नाम की रह गई है। समय की रील चल रही है दृश्य बदल रहा है और पत्रकार गायब हो रहे है। इसी इलाके में चालीस साल से दुकानदारी कर रहे विनोद सरीन बताते हैं कि बहुतेरे पत्रकारों ने इस इलाके में कोठियं बेच दी है। सरीन जिस दुकान के मालिक है वह दुकान उन्हें उनके पिताजी ने 45 हजार रुपये में खरीद कर दी थी। आज विनोद जब अपनी दुकान का भाव मोलते हैं तो 60 लाख से एक पैसा भी कम कुबूल नहीं। विनोद के पिता अंग्रेजों की एयर फोर्स में इंजीनियर की हैसियत पर थे। उनके द्वारा लगाई गई चक्की का आटा विनोद सरीन आज तक खा रहे है। चाहते तो अच्छे दामों में इस दुकान का सौदा भी कर सकते थे। जैसे इस इलाके में रहने वाली पत्रकार पीढ़ी ने किया।


इन पौश इलाकों का एक अलग कल्चर होता है। किसी गेट के बाहर बंदूक थामे जमाईयां बटोरता सिक्योरिटी गार्ड। किसी कोने पर पेड़ के नीचे इस्त्री फेरता कोई धोबी। गाड़ी के शीशे पर हाथ फेरता ड्रइवर। हर मोड़-छोर पर कुछ संकेत देते बोर्ड। दूर तक पसरा एलीटनेस का सन्नाटा। और कभी कभी कोई इक्का दुक्का मेरे जैसा आवारा। बोर्ड पर लिखे संदेशों से पता चलता है कि इन इलाकों में लोग सुबह-शाम कुत्तों को घुमाने का शौक भी रखते है। दोपहर को जाना हुआ था इसलिए कुत्तों वाला सीम मिस हो गया। हौज खास अपार्टमेंट, अरविंदो मार्ग और गुलमोहर पार्क में ऐसी ही संभ्रांत हवाएं बहती हैं। गुलमोहर पार्क थोड़ा फर्क पैदा करता है। वह यह कि गुलमोहर पार्क में पत्रकारों के आशियानें अभी भी ग्राउंड जिरो पर है जबकि पूंजीवादी कोठियां आसमान चूमने को आतुर है। समय की रील थमेगी नहीं।
एंट्री गेट पर नाम पट्टिका हिंदी में हैं शायद हिंदी पत्रकारिता से वास्ता है
क्या अर्ज किया है......
आलीशान आशियाना और पत्तरकार
बाहर के कुछ लोग..
सुनसान सा संभ्रांत

3 comments:

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

बारिश के पानी से गीली तर सड़कों पर यूं घूमना और गुलमोहरों को जान पाना कितना सुखद और दुखद है, बात करने और जरूर बात करने लायक है। काश मैं भी यूं पैदल चल पाता और वहां होता। पर तस्वीरें बोलती हैं, वहां न होने की कमी को कुछ पूरा करती हैं।

अविनाश वाचस्पति said...

गुलमोहर पार्क कालोनी पर भी संदीप भाई की मोहर लग गई, यह मोहर इसी प्रकार लगती रहे कभी गुल न हो और तस्‍वीरें गुलगपाड़ा करती रहें। शुभकामनायें।

Anonymous said...

शहर के मिजाज से मेल खाती पोस्ट। बढ़िया